Friday 16 October 2015

जिला बिजनौर की एक लड़की की दर्दमंद कहानी: सच के आगे दुनिया ने झुकाया सर

अफ़साना कमरे के बाहर से आती हुई आवाज़ों को बहुत ग़ौर से सुन रही थी. ऐसा नहीं था आज पहली बार इस तरह की बातें उसके लिए जी का जंजाल बन रही थी, ये तो उसके लिए रोज़ मर्रा की कहानी थी. सुबह स्कूल जाते वक्त अम्माँ की बड़बड़ सुनना और अब्बा का उन्हें मुस्कुराते हुए कहना ''देखना, मेरी बेटी एक दिन बिरादरी का नाम रोशन करेगी''.
अफ़साना के अब्बा पेशे से बहुत पहुंचे हुए डॉक्टर थे जो उन्हें विरासत में मिला था. अफ़साना के दादाजान भी बहुत पहुंचे हुए डॉक्टर थे. दादाजान ने सारी उम्र बिरादरी की खिदमत में गुज़ार दी थी. बिरादरी की खिदमत करने का जज़बा दादाजान ने सबको विरसे में दिया। उन्ही के नक़्शे क़दम पे अफ़साना के अब्बा भी बिरादरी पर मिटने को तैयार थे. डॉक्टर साहब ने बिरादरी में तालीम की बुनियाद रखी. नई नस्लों ने डॉक्टर साहब की देखा देख ही तालीम हासिल की. 
बेटी के सोलहवें साल में क़दम रखते ही अम्माँ को बेटी के हाथ पीले करने की फ़िक्र सताने लगी. जबकि अब्बा का ख्वाब बेटी को खूब आगे तक पढ़ाना लिखाना था. रोज़ सुबह बेटी के स्कूल जाते वक्त अम्मा और अब्बा की तकरार सुनना अफ़साना के लिए आदत हो गयी थी. अफ़साना ने अम्मा की एक न सुनी और तालीम हासिल करने का जूनून जारी रखा. बेटी के बढ़ते हुए इल्म को देख कर अम्मा को ये फ़िक्र सताने लगी के बिरादरी में ऐसे लड़के कहां से आएंगे जो बेटी के लायक हों और ऊपर से इस जाहिल बिरादरी के रोज़ रोज़ के लगने वाले लांछनों से अम्माँ परेशान थीं.
1970 का ये वो दौर था जब हिंदुस्तान का नीच वर्ग जिस्मानी तौर पे ब्राह्मणों से आज़ाद हो चुका था पर ज़ेहनी ऐतबार से अभी ग़ुलाम था. हिंदुस्तानी निचले मआशिरे में लड़कियों का पढ़ना जुर्म समझा जाता था. स्कूल जाने वाली लड़कियां बहुत ही मॉडर्न और आज़ाद ख़यालात की समझी जाती थीं. पांचवी पास करने वाले को जेंटलमैन कहते थे और बेहतरीन सरकारी नौकरियां उनका इन्तिज़ार करती थीं जबकि अफ़साना का ख्वाब तो डॉक्टर बनकर दादाजी के विरासत में दिए हुए इल्म को आगे बढ़ाना था.
जवानी की देहलीज़ पे क़दम रखने वाली इस लड़की ने शायद सोचा नहीं था की उसकी जाहिल बिरादरी जो औरतों को सिर्फ अपना ग़ुलाम समझती थी उसे कभी उस रूप में क़ुबूल नहीं करेगी और उसको ये ख्वाब देखने की सज़ा सारी उम्र भुगतनी होगी। अफ़साना अपने समाज की लड़कियों को ज़ेहनी ऐतबार से पछाड़ चुकी थी और ये बात किसी भी तरह बिरादरी के लोगों को बर्दाश्त नहीं होती थी. बिरादरी ने अफ़साना पर तरह तरह के इलज़ाम लगाने शुरू कर दिए जिससे घर की बदनामियाँ होने लगी. जो समाज क़ाबलियत के ऐतबार से अफ़साना के घर का नौकर बनने के भी क़ाबिल नहीं था उसे ऐसे धुत्कार रहा था जैसे पूरी बिरादरी में उससे ज़्यादा ज़लील कोई और औरत ना हो. आखिर को ये दिन तो देखना ही था, समाज की बुराइयों के खिलाफ जाने वालों का बिरादरियां यही हशर करती थीं आखिर  में एक कमज़र्फ बिरादरी से इससे ज़्यादा क्या उम्मीद करूँ। खैर, होनी को कौन टाल सकता था. 
अफ़साना की अम्मा इस फ़िक्र में बीमार रहने लगीं  की अब बेटी को कौन अपनायेगा, बिरादरी ने तो ये कहकर हाथ खीच लिए  थे के लड़की का पैर घर से बाहर निकल चुका है और इस तरह की लड़की को जाहिल बिरादरी बाज़ारू कहती थी. गैर बिरादरी में शादी करने का ना तो रिवाज था और ना ही कर सकते थे क्योकि इस बात का खतरा था की बिरादरी हुक्का पानी बंद ना कर दे. फिर तो लेने के देने पड़ जायेंगे, धोबी का कुत्ता ना घर का ना घाट का. कहीं ऐसा ना हो गैर बिरादरी भी ना अपनाये और बिरादरी बेदखल करदे वो अलग फिर तो सारी  उम्र अफ़साना को एक बंद कमरे में ही रहना था. अब तो अफ़साना की ज़िन्दगी में सिर्फ इंतज़ार ही था,कब हाथ पीलें हों और कब अफ़साना अपने घर जाए.
सर्दियों में उस दिन धुप बहुत ज़ोरों शोरों से पहाड़ों से चलती हुई ठण्डी हवाओं को चिढ़ाते हुए निकली थी, अम्मा धूप में बैठी हुई टुकटुकि बांधे काम करती हुई अफ़साना को बहुत गौर से देख रही थीं. वक्त गुज़रा पर अम्मा ऐसे ही देखते रहीं, अफ़साना ने कहा,''अम्मा, अम्मा'', पर शायद अम्मा ऐसी नींद सो गयी थी की अब दोबारा कभी आँख ना खुले। अम्मा की ज़िन्दगी की शायद ये आखिरी खिलखिलाती धुप थी. अम्मा का अफ़साना की शादी देखने का आखिरी ख्वाब पूरा नहीं हो पाया। अफ़साना के हाथ पीले तो नहीं हुए अलबत्ता अम्मा का चेहरा पीला ज़रूर हो गया. अफ़साना की आखिरी आस अब टूट चुकी थी. अब्बा भी अब खामोश रहने लगे थे. अब्बा की ख़ामोशी की वजह कुछ और नहीं बल्कि अफ़साना के सफ़ेद होते हुए बाल थे जो दुनिया से छिपाने बहुत मुश्किल  थे और इससे भी ज़्यादा बिरादरी के जुमले जो दिल को चीरते हुए निकलते थे.
अल्लाह पाक की ज़ात को अफ़साना की हालत पर तो तरस आता होगा पर उस जाहिल, कमज़र्फ और ज़लील बिरादरी को तरस नहीं आया. अफ़साना के ऊपर ज़िन्दगी का आखिरी पहाड़ तब टूटा जब अब्बा ने आखिरी सांस ली और अफ़साना की आँखों के सामने दम तोड़ दिया। चालीस साल की कुंवारी अफ़साना अब मरती क्या न करती. अब तो उसे इल्म के पायदान से नीचे उत्तर कर एक जाहिल, गाली गलोच करने वाले, दारूबाज, चोर क़िस्म के बिरादरी के किसी मर्द का हाथ पकड़ना ही था पर क़िस्मत को ये भी मंज़ूर नहीं था इतनी क़ाबिल लड़की की जिसकी मिसाल मोअर्रिख अपनी क़लम से सुनहरे लफ्ज़ो से लिखेगा उसे बिरादरी के चंद ज़लील सिर्फ अपनी रखेल बना कर रख सकते थे, घर की ज़ीनत नहीं. आखिर हम इन चोरों, नशाख़ोरों और दूसरों का माल लूटने वाले आदमखोरों से इससे ज़्यादा क्या उम्मीद कर सकते थे. 
एक तवायफ को नोटों से नहलाना इन शराबियों और लुटेरों के शोक थे पर एक ख़ुशख़लाक़, समझदार और पढ़ी लिखी यतीम लड़की की चंद रुपयों से मदद करना एक ऐब था. बिरादरी नाम की ज़ेहनी बीमारी ने अफ़साना से उसकी ज़िन्दगी, ख्वाब, ख्वाहिशें सब छीन लिए थे. हालांकि अब अफ़साना आज़ाद थी ज़िन्दगी को शहर में अच्छे से गुज़ार सकती थी पर इसीलिए गाँव नहीं छोड़ा की बाप दादाओं की इज़्ज़त का क्या होगा. अब कंगाली सर चढ़ने लगी , पापी पेट में जलन होने लगी, भूक की शिद्दत को कम करने के लिए क्या किया जाए , आगे पीछे किसी का सहारा नहीं, बिरादरी से क्या उम्मीद की जाये सिवाए हवस के इस ज़लील, कमज़र्फ, बेहया बिरादरी पर कुछ और न था. 
अफ़साना के ग़ैरतमंद खून को ये गवारा ना हुआ के वो किसी शराबी, और दूसरों का माल मारने वाले बिरादरों के आगे हाथ फैलाये अलबत्ता वो इस बात पे मुत्तफ़िक़ थी के जब घर में मर्द ना हो तो औरत को कमान संभाल लेनी चाहिए। मुख्तलिफ स्कूलों और कालिजों में अफ़साना ने पढ़ाना शुरू किया, अब्बा हुज़ूर की जगह अफ़साना ने  डॉक्टरेट शुरू की और ज़िन्दगी बसर करने लगी लेकिन किसी कमज़र्फ के सामने हाथ नहीं फैलाया, ज़िन्दगी ने अफ़साना जो सबक सिखाया वो ये था की अफ़साना ने अपने इल्म से बिरादरी के साथ साथ पूरी इंसानियत को फ़ैज़याब किया. अब बिरादरी नाम की चीज़ उसके लिए कोई मायने नहीं रखती थी. आखिर को बिरादरी ने सिवाए अपने ज़ुल्म के उसे दिया ही क्या था. अफ़साना की ज़िन्दगी के किस्से आज माएँ अपनी बच्चियों को फख्र से सुनाती हैं. समाज के दर्दमंद लोग इस पचास साल की लड़की के सामने सर झुकाकर इज़्ज़त से सलाम करते है. अफ़साना की क़ुर्बानियों ने उसकी बिरादरी की औरतों को ये सोचने पर मजबूर कर दिया की औरत सिर्फ ज़ुल्म सहने का नाम नहीं है और अफ़साना की देखा देख पूरी बिरादरी ने अपनी बच्चियों को तालीम दिलवाना शुरू किया और आज की तारीख में अफ़साना की बिरादरी की लड़कियां जज, वकील, डॉक्टर, प्रोफेसर जैसी बेहतरीन नौकरियों पर हैं.  क्या ये समाज आज अफ़साना के ऊपर हुए ज़ुल्मों का बदल दे सकता है. 
ऐ मेरी क़ौम के लोगों! आओ ऐसी बहादुर औरतों को तारीख के पन्नों में एक जगह दें. 
[ ''It is a fiction to inspire women from backward countryside, resemblance to any person is just a coincidence''-Yasir Arafat Turk]