Wednesday 24 February 2016

हिंदुस्तानी ज़बान और इंक़िलाब: उभरते हुए लेखकों को एक सलाह

मुझे शुरू से ही लिखने का शोक रहा है. ये अलग बात है वक्त और उम्र के साथ लिखने का नजरिया बदल गया. शुरूआती दिनों में शायरी का ज़्यादा शोक रहा. इसका क्रेडिट में लिसानियात को भी देना चाहूंगा जिसकी वजह से ज़ुबान की बारीकियों को समझने का मौका मिला. ज़ुबान से मुहब्बत मुझे पहले से ही रही. वक्त चलते दुनिया की सात महान ज़ुबानों का इल्म हो गया. बढ़ते तजिरबे और इल्म के साथ साथ मुझमे क्रन्तिकारी बनने की ख्वाहिश पैदा हुई. समाज झूट की बुनियाद पे टिका है जिसमे एक ताकतवर इंसान कमज़ोर पर ज़ुल्म कर रहा है. यहाँ हर कोई एक दूसरे को नीच भाव से देखता है. दुनिया से मुहब्बत मुझे बहुत कम वक्त तक ही रही. ज़्यादा पढ़ने का ये भी एक बड़ा नुक्सान है. दिल उचाट हो जाता है. 
इस दुनिया में दो तरह के इंसान हैं एक वो जो कुछ नया करना चाहते हैं और एक वो जो बाकि लोगों पर अपना हुक्म चलाना चाहते हैं. इस मकसद को पूरा करने के लिए इंसानों ने ज़ात पात, मज़हब, रंग, नस्ल जैसे भेद पैदा किये और दूसरे इंसानों को अपने आप से हकीर दिखाना शुरू कर दिया. बढ़ती उम्र और इल्म ने मुझे और मेरी रूह को झिंझोड़ कर रख दिया. मेरा ज़हन एक दिन ऐसे मुकाम पर आ गया जब मुझे इस दुनिया के रिवाजों से बिलकुल भी मोहब्बत बाकी नहीं रही. हर तरफ ज़ुल्म नज़र आने लगा. समाज में बदलाव के लिए हमेशा आगे खड़ा रहा. एक दिन मुझे इस बात का अहसास हो गया की यहां जो बदलाव की बात करता है वो बेवक़ूफ़ होता है. दुनिया ऐसे इंसान को जीने नहीं देती. उदासी और तन्हाई यही मेरी साथी बन गयी. ज़हन है की सोने तक नहीं देता. कुछ ना कुछ चलता रहता है. महीनों घर पर टेलीफोन किये हुए हो जाते हैं. ऐसे में बदलाव की ज़िद . घंटों खामोश बैठे रहना और सोचना. मेरे लिए तो जी का जंजाल था. 
उन दिनों आई आई टी बॉम्बे में पीएचडी में दाखिला मिला. डेढ़ साल कैंपस में रहने के बाद अहसास हुआ हम अकेले नहीं हैं. इस दुनिया में हमारे जैसे पागल और भी हैं. यहीं से सबक सीखा की आम दुनिया हम लोगों के लिए नहीं बनी है. हम आम लोगों के लिए पागल से ज़्यादा कुछ नहीं इसलिए अपनी बात को अख़बारों, रिसालों और मैगजीनों के ज़रिये पहुँचाओ. बदलाव ज़रूर आएगा. ये वो वक्त था जब इन्क़िलाबी मज़्मून लिखने की शुरुआत हुई. सबसे बड़ी परेशानी थी कोनसी ज़ुबान में लिखना शुरू करूँ. अंग्रेजी ज़ुबान से मुझे सबसे ज़्यादा मोहब्बत रही. में अपनी आम ज़िन्दगी में अंग्रेजी ही बोलता हूँ. अलबत्ता अहले खाना से भी अंग्रेजी में ही गुफ्तुगू  होती है. शुरुआत अंग्रेजी ज़ुबान से की. इस ज़ुबान ने मुझे समाज के उस तबके से जोड़ दिया जिसमे बदलाव के जरासीम बिलकुल भी नहीं थे. बदलाव सिर्फ ग़रीबों की ख्वाहिश होती है. बड़े लोगों में बदलाव के जरासीम बहुत कम नज़र आते हैं. अंग्रेजी में लिख कर इस बात का अहसास हुआ की में सिर्फ एक बिका हुआ राइटर बन कर रह गया हूँ. जो पैसे लेकर कुछ ना कुछ लिख देता है. यहाँ से मुझे सबक मिला की अब जो भी लिखना है अपने और अपने लोगों के लिए लिखना है. 
अपने लोग यानी ग़रीब, किसान, मज़दूर. किसी भी राइटर को ये बात हमेशा याद रखनी चाहिए की ज़ुबान और ज़ुबान का स्टाइल वो रखना चाहिए जिसमे उसके टारगेट रीडर्स को महारत हासिल हो. मुझे इंक़िलाब की चाहत है और इंक़िलाब सिर्फ ग़रीबों की चाहत है. ग़रीब हिंदी जानता है. अंग्रेजी सिर्फ चंद अमीरों की जमात में महदूद है. यही से मुझे हिंदुस्तानी ज़ुबान में लिखने का जूनून पैदा हुआ. शायद मेरा मकसद, बदलाव लाना, अंग्रेजी से कभी पूरा नहीं हो पाता और में हमेशा अलग अलग अख़बारों और रिसालों के लिए पैसे लेकर लिखता रहता. अलीगढ में मेने ये महसूस किया जो लोग अंग्रेजी बोलते हैं वो अपने आप को बड़ी क्लास का होने का दावा करते हैं. अंग्रेजी ज़ुबान में भी इस बात का ख्याल रखें की जो लिखा जा रहा है वो टारगेट रीडर्स तक पहुँच पायेगा या नहीं. कभी कभी ये देखा गया है की अंग्रेजी में लिखे हुए मज़्मून बहुत ही क़दीम अंग्रेजी में है जिसकी वजह से आम रीडर्स बात की तेह तक नहीं पहुँच पाये हैं. मिसाल के तोर पर अंग्रेजी अख़बार ''टाइम्स ऑफ़ इंडिया और द हिन्दू'' जैसे अख़बारों की ज़ुबान से ये अंदाज़ा लगाना आसान होगा की दोनों के टारगेट रीडर्स कौन हैं. एक दूसरी मिसाल मेरे खुद के एक मज़्मून की है जिसको मेने स्टूडेंट यूनियन पर लिखा था जिसमे हमारी ही यूनिवर्सिटी की एक उभरती हुई राइटर ने तंज़ करते हुए कहा की मज़्मून में इस्तेमाल हुई ज़ुबान दसवी दर्जे में पढ़ने वाले बच्चे के जैसी है, उनका कहना बिलकुल सही था वो ज़ुबान दसवें दर्जे के बच्चे की ही थी क्योकि उसको दसवें दर्जे के जैसी समझ रखने वाले रीडर्स के लिए ही लिखा गया था. जौर्नल्सिम में क़दम रखने वालों को इस बात का इल्म होना चाहिए की ज़ुबान का सबसे ज़्यादा मैनीपुलेशन मीडिया में ही होता है और खुशकिस्मती से खादिम की पीएचडी भी इसी मोज़ू पर ही है.   
भाषा यानि ज़ुबान अपनी बात को दूसरे तक पहुंचाने का महज़ एक जरिया है. मकसद पूरा होना चाहिए. ज़ुबान कोई सी भी हो. लेकिन कुछ लोगों के लिए ऐसा नहीं है. अंग्रेजी लिखना और बड़े क़दीम अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल करना और साथ साथ ये भी कहना की वो इन्क़िलाबी हैं मुझे कभी जचा नहीं. ये बात में वहां मान सकता हूँ जहाँ की मादर ज़ुबान अंग्रेजी हो. लेकिन हिंदुस्तान जैसी जगह में अगर इंक़िलाब लाने की चाहत है तो यही की ज़ुबान में लिखना फायदेमंद साबित होगा. दुनिया के महान क्रांतिकारियों ने जिनकी अंग्रेजी तारीफ़ के काबिल रही अपनी किताबें अपनी ही ज़ुबान में लिखीं जैसे की गांधी, आंबेडकर वगैरा. इंक़िलाब सिर्फ ग़रीब चाहता है, अमीर को इसकी ज़रुरत ना के बराबर है. ग़रीब अंग्रेजी नहीं जानता. पिछले दिनों यूनिवर्सिटी की ही एक बहुत ज़हीन लड़की, राइटर, का एक लेख पढ़ा जिसमे उन्होंने स्टूडेंट यूनियन में सदर की कुर्सी पर एक लड़की के होने की ख्वाहिश ज़ाहिर की. उनका आर्टिकल यकीनन बड़े घरों की आज़ाद ख़यालात लड़कियों ने पढ़ा हो और चार तारीफें भी की हों लेकिन मुझे पढ़कर इस बात का अहसास हुआ की यही बात अगर आम ज़ुबान में कह दी गयी होती तो उसका असर यकीनन समाज के उस तबके में हो जाता जो इंक़िलाब में इस लड़की के साथ शाना बशाना हो सकती थीं. क्रांति हमेशा ग़रीब लोगों से ही आती है, तारीख इस बात की गवाह है. 
आज के उभरते हुए राइटर्स को में इस बात की राय देना चाहूंगा की ज़ुबान महज़ अपनी बात दूसरों तक पहुंचाती हैं इसका ''सोशल स्टेटस'' से कोई लेना देना नहीं है. पिछले दिनों अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एक नए क्रन्तिकारी राइटर का नाम शामिल हुआ है , शरजील उस्मानी, जिनका ज़िक्र सड़को, गलियों और मौहल्लों में होने लगा है. इस बात से ज़ाहिर हुआ की आम लोगों तक उनकी बात पहुँच रही है और बदलाव आ रहा है. इसके बिलकुल उल्टा हमारी उभरती हुई क्रन्तिकारी राइटर, जिनका ज़िक्र ऊपर किया है, का ज़िक्र जब सड़को पर आम लोगों में चला तो मुझे बहुत अफ़सोस हुआ ये जानकार की आम लोग उनके उस मज़्मून के बारे में अच्छे ख्याल नहीं रखते. चंद अंग्रेजी बोलने और पढ़ने वाले लोगों ने आम लोगों को ये बताया की ये लड़की यूनिवर्सिटी और मज़हब के खिलाफ है जिससे इंक़िलाब आते आते रह गया. मेरी दिली तमन्ना है की कोई लड़की सदर की कुर्सी पर आये और हम अलीगढ से अमेरिका को ये कहकर चिढ़ाएं की तुम अभी तक इतने लिबरल न हुए की लेडी प्रेजिडेंट दे सको, लेकिन हमने लेडी को सदर बना दिया है. में सोचता हूँ अगर इस लड़की ने अपनी बात को आम ज़ुबान में कहा होता तो शायद बदलाव आ चुका होता. घरों, गलियों, सड़कों और मुहल्लों में उस मौज़ूं पर मंथन हो रहा होता जिस के लिए मज़्मून लिखा गया था. 
लिहाज़ा में तमाम उभरते हुए क्रन्तिकारी लेखकों से यही उम्मीद करता हूँ की वो लोग ज़ुबान का इस्तेमाल वो करें जिससे आम लोग जुड़े हुए हों. अशोक महान उन लोगों में से हैं जिहोने बोध धर्म  को संस्कृत के बजाये प्राकृत में आगे बढ़ाया जो की आम लोगों की ज़ुबान थी. उम्मीद करता हूँ मेरे इस मज़्मून का फायदा समाज को ज़रूर पहुंचेगा. इंक़िलाब ज़िंदाबाद।