कितनी खूबसूरत अदाएं हैं, इनके बोलने के अंदाज़ तो मुझे किसी रोज़ पागल कर देंगे, लफ्ज़ ऐसे तोल तोल के बोलते हैं की जैसे एक उम्र इसी की ट्रेनिंग में गुज़ारी हो, में तो चुपचाप सुनता रहता हूँ, दिल तो उस वक्त शताब्दी एक्सप्रेस से भी तेज़ दौड़ता है जब ये खिलखिलाकर एक दूसरे के हाथ पे हाथ मरते हैं, ऐसा मालूम होता है जैसे कोई किला फतह हुआ हो और उसकी खशी पूरा खानदान मिल बाट के सेलिब्रेट कर रहा हो, और क्या बताऊ लड़के और लड़की में कोई फर्क नहीं, दोनों ही के अंदाज़ निराले हैं, दोनों की ही आवाज़ में लचीला पन है, दोनों ही की कमर लचीली है, ये शहरी दुनिया भी ना कुछ अजीब ही सी है. यहाँ कुछ भी तो हमारे जैसा नहीं. ना ही तो भेड़ बकरियां है, ना गाव के ताऊ हैं, ना ही चौधरी साब हैं, और ना ही वो साफ़ दिल के गंदे कपडे वाले मज़दूर. यहाँ लोग तो साफ़ हैं पर दिल गंदे हैं. अब में यहाँ रुक कर क्या करूँगा. मेरा तो दिल ही नहीं लगता. जी तो वापिस वही जाने को कर रहा है, वही गाँव, वही खेत खलिहान, वही बकरियां, वही भेड़ें. लेकिन अब्बा ने जो ज़ुबान ली थी उसका क्या करूँ. अब घर चला जाऊ तो अब्बा से वादा खिलाफी करूँ और यहाँ रूकू तो पागल हो जाऊं.
ये अदीब है जिसकी कहानी उन दो पायदानों पे खड़ी है की जिधर भी जाए उसके लिए खायी ही है. अदीब आफ़ंदी एक छोटे से गाँव का बच्चा अलीगढ में बड़े बड़े ख़्वाब लेकर आया. उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर के एक गाँव में पला बढ़ा अदीब बहुत मेहनती बच्चा था. किसी ने सलाह दी की अलीगढ चला जाए. अलीगढ की शुरुआती ज़िन्दगी तो शहरी तोर तरीकों को सीखने में गुज़ार दी. अदीब मेहनत करता रहा और अंग्रेजी को तोड़ फोड़ कर बोलने लगा. हॉस्टल में एक सीनियर बहुत ही अच्छे लगते थे उन्हें आते जाते सलाम कर दिया करता था. ये सीनियर भाई भी अदीब को पसंद करने लगे. एक दिन अदीब ने सीनियर मुग़ल फैजान को बताया की वो कई बार अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के कल्चरल एजुकेशन सेंटर में अर्ज़ी दे चूका है पर वहाँ के लोग उसे उसकी देहाती ज़ुबान, गंदे कपडे और अंग्रेजी पर कम पकड़ होने की वजह से एंट्री नहीं देते. अदीब का ख्वाब एक राइटर बनना था पर कहते हैं ना ग़रीबी में दुनिया के दस रंग नज़र आते हैं, कुछ ऐसा ही अदीब के साथ था. ग़रीब मरता क्या ना करता, धक्के खाता रहा. तीसरे साल भी सी ई सी में अर्ज़ी नामंज़ूर हुई, अदीब शर्म के मारे इंटरव्यू में इसलिए कुछ नहीं बोलता था की ये मेहेंगे कपडे पहनने वाले, अंग्रेजी बहुत ही नज़ाकत से बोलने वाले बड़े घर के लोग कहीं उसकी ज़ुबान ना पकड़ लें. बस दिल में ऐसा ही डर लिए अदीब कभी अपना इल्म इन लोगो को नहीं दिखा पाया और अर्ज़ी नामंज़ूर होती रहीं.
मुग़ल फैजान जो बहुत ही नफीस तबियत के मालिक थे अदीब को इतना तो जान ही गए थे अदीब एक मेहनती बच्चा है और अगर उसे सी ई सी का अच्छा माहोल मिल गया तो बहुत आगे चला जायेगा. मुग़ल फैजान की सी ई सी में बहुत बात थी, किसी की क्या मजाल जो उनकी बात टाल दें और बात जब अपने सबसे चहीते जूनियर के लिए हो तो मुग़ल फैजान लंका में अकेले ही कूदने का जिगर रखते हैं . मुग़ल फैजान ने टेलीफोन करके इत्तेला दी की वो एक बच्चे को भेज रहे हैं और उन्हें लिटरेरी क्लब में एक जगह दी जाए. और इस तरह अदीब सी ई सी में पहुँच गया. अदीब जो सीखने की ललक लेकर साथ आया था और सोने पे सुहागा ये की गाँव का रहने वाला. गाँव के लोग रहे मेहनती, जो धरती में पाँव मार दें तो धरती भी पानी छोड़ दें, मेहनत करना इन्हे विरसे में मिलता है. अदीब अपनी मेहनत से सबका दिल जीतता था. इसी जूनून के साथ अदीब सी ई सी आया. लेकिन अदीब को उस वक्त ये नहीं मालूम था की अदीब ने बीड़े के छत्ते में हाथ डाला है जो अब सही सलामत वापिस नहीं आएगा. अब उसका ज़हर या तो उसके हाथ को झेलना था या उसके मासूम से निहायती शरीफ ज़हन को. एक तो शरीफ इंसान ऊपर से गाँव का. अब गंवारपन तो साथ लाएगा ही.
अल्फिया नौरीन ने जैसे ही सी ई सी में कदम रखा उसका सामना एक देहाती लड़के से हो गया. अल्फिया का तो जैसे दिन ही खराब हो गया था. अल्फिया मन ही मन कोसती चली गयीं ''कैसे कैसे गवार चले आते हैं'' असल में हुआ यूँ अदीब ठहरा देहाती उसने देहाती भाषा में पूछ लिया ''बाजी, याहकु तो ताला मार दियो म्हारे गुरु जी ने''. बस इस बात पे अल्फिया की भवे सिकुड़ गयीं और मन ही मन कोसते हुए आगे निकल गयीं की कैसे कैसे जंगलों से चले आते हैं. अल्फिया और उसकी दोस्तों के बीच बस उस दिन यही चर्चा रहीं और वो बार बार भवें चढ़ाते हुए हथेली को बहुत ही नज़ाकत से माथे पे रखते हुए बार बार कहती रहीं ''ओह माय गॉड, ही लुक्स लाइक अ बास्टर्ड, थर्ड क्लास स्माल टाउन गाय'' और ये सुनते ही अल्फिया के आस पास की लड़कियां भी इठलाती हुई हसी के गुलछर्रे उड़ाते हुए एक हकीर निगाह अदीब पर डालते हुए सी ई सी के बाहर लॉन पर आ गयी और वहाँ आकर गाँव की बदहाली, ग़रीबी, नंगपन, भूक, पर खूब अफ़सोस जताते हुए गुफ्तुगू की. बस फिर तो जैसे ये रोज़ का मामून बन गया. अदीब के सामने ये बात कुछ जान बूझकर कही जाती थीं ताकि उसे इस बात का अहसास हो की वो गँवार है. अदीब को बार बार ये बताया जाता की वो अलीगढ की तहज़ीब सीखे. कभी कभी जब अदीब ''शमशाद मार्किट'' को ''समसाद मार्किट'' कह देता तो सब खुद कहकहे लगा कर हस्ते. कभी अदीब के कपडे फटे होते तो सब आपस में गुफ्तुगू करते रहते, उस दिन अदीब को ये लोग मुंह भी नहीं लगाते. अदीब एक समझदार बच्चा था सब कुछ समझता था वो खुद ही इन लोगो से दूर रहने लगा. पास जाता तो अहसास से ज़लालत और दूर रहता तो अहसास से कमतरी.
आज तो अल्फिया ने हद ही कर दी जैसे ही सी ई सी में आई अदीब को हुक्म दिया जाओ सब सीनियर्स के लिए कैंटीन से चाय लेकर आओ. अदीब सब समझता था ये प्यार से कहे हुए जुमले कितने ज़हर से भरे हुए थे. गाँव के लोग शरीफ ज़रूर होते हैं पर बेवक़ूफ़ नहीं. अदीब ने सबको चाय लाकर दी और खुद मिज़ियोलॉजी डिपार्टमेंट के बाहर आकर बैठ गया औए सोचने लगा की कितने पथ्थर दिल लोग हैं ये. उसकी आँख में आंसूं आ गए और उस दिन उसने अपनी ग़रीबी, बदहाली, भूक और नंगपन पे खूब आंसू बहाये. आज दिल गाँव जाने को बेताब था. दिल तो चाह रहा था की वापिस घर चला जाये और खेत में ही अब्बा के साथ हल चलाये. अदीब अपनी सोच में गुम था की फिल्म क्लब का शाहरुख उसे इस तरह बुत बने हुए देख कर चला आया. शाहरुख़ उसकी उलझी शकल देख कर पूछने लगा की क्या बात है, क्या हुआ है, चेहरे पे आंसुओं के निशाँ क्यों. शाहरुख़ अदीब का वाहिद दोस्त था, उसको देख कर वो बहुत रोया. शाहरुख़ ने उसे कुछ देर रोने दिया ताकि उसका दिल हल्का हो जाए. अदीब खामोश हुआ तो शाहरुख़ ने फ़िक्रिया अंदाज़ में अदीब को झिंझोड़ने की कोशिश की और पूछने लगा की आखिर हुआ क्या है. शाहरुख़ नहीं जानता था की आज उसके दिल में एक आग लगी है जो शायद इस बार के झड़ से भी ठंडी ना हो, मुमकिन हो के पूरा समंदर लाकर इसमें डाल दिया जाए तब भी ये आग ना बुझे. अदीब ने कुछ नहीं बताया और हॉस्टल चला गया.
अदीब अगले रोज़ सी ई सी में आते ही सबसे बड़े अख़्लाक़ से मिला. आज उसकी बातें भी अजीब अजीब थी जिसको सबने गौर किया. शाहरुख़ ने अदीब को चाय ऑफर की तो अदीब मना ना कर सका और लाइब्रेरी कैंटीन पर चाय के लिए दोनों चल दिए. शाहरुख़ ने अदीब को टटोलने की कोशिश की. कल क्या हुआ था? अदीब थोड़ा जज़्बाती हो गया. कहने लगा ये लोग हमारे दर्द को क्यों नहीं समझते, इन्हे इस बात का ज़रा भी ख़याल नहीं आता की इन लोगों की ज़िन्दगियों में और हम लोगों की ज़िन्दगियों में कितना फर्क है, ये एयर कंडीशनर में पलते बढ़ते हैं और हम जंगलों में, ये कान्वेंट में पढ़ते हैं और हम मदरसों में, ये महलों के शहज़ादे हैं और हम नाली के कीड़े, ये महल वाले हैं और हम झोपडी वाले, इनके पास पढ़ने के लिए महंगी लाइट्स हैं हमारे पास स्ट्रीट लाइट्स, ये हज़ारों रुपयों के कपडे पहनते हैं और हम भीक में मिले हुए सस्ते से कपडे, जब ये अमीर निशा और सेंटर पॉइंट पर गुल छर्रे उड़ा रहे होते हैं तब हम बारादरी जैसे बाज़ारों में फेरी लगा रहे होते हैं, इन्हे ये ख़याल क्यों नहीं आता. इन्हे पता हैं हमारी औकात अमीर निशा रिक्शा से जाने की नहीं पर ये लोग हमारे सामने लंदन और अमेरिका की बाते हमें ज़लील करने के लिए क्यों करते हैं, हम पैदल चलकर आते हैं और ये लोग महंगी महंगी गाड़ियों से हमें उससे भी ऐतराज़ नहीं हैं लेकिन इसके बावजूद सोशलिज्म पर लेक्चर ऐसे देते हैं जैसे इनसे बड़ा बराबरी की ताईद करने वाला तो इस दुनिया में कोई हो ही ना, ये कैसे बदज़ात लोग हैं. फेमिनिज्म और कम्युनिज्म जैसे फलसफों का इस्तेमाल अपने जाती मफद के लिए करते हैं, इन्हे कभी अहसास क्यों नहीं होता. इन्हे कभी इस बात का अहसास नहीं होता की इनकी ज़ुबान, कल्चर, समाज और हम लोगो के समाज में फर्क हैं तो हमें हकीर निगाह से ना देखें, हमारे ज़हन में हर सवाल का जवाब होता हैं और इनसे बेहतर होता हैं लेकिन हम अंग्रेजी में कमज़ोर हैं तो जवाब नहीं दें पाते और अगर हम अपनी मातृभाषा में जवाब देते हैं तो हमारा मज़ाक उड़ाते हैं. ये कभी सोचते क्यों नहीं की इससे हमारे ज़ेहनों पर क्या फर्क पड़ता हैं. इससे हमारे कॉन्फिडेंस पर क्या फर्क पड़ता हैं, इन लोगो के बीच में आकर वही रह सकता हैं जिसके अंदर चमचा गिरी करने की आदत हो और इनकै फटे हुए जूते सिलवाकर लाने की आदत हो, ये इस बात को क्यों नहीं समझते की हम इनके साथ अहसास ए कमतरी का शिकार होते हैं.
अदीब ने आज अपने दिल की पूरी भड़ास निकाल दी. शाहरुख़ उसे ख़ामोशी से सुनता रहा. अदीब ने आगे कहा ''आज में ये सोचकर आया हूँ की यहाँ मेरा आखिरी दिन हैं इसीलिए सबसे अच्छे से मिला हूँ''. शाहरुख़ ख़ामोशी को तोड़ते हुए बोला,''अदीब! ये कोनसा नया फैसला हैं, ये तो यहाँ आने वाला हर गरीब बच्चा करता हैं, उसके सामने दो ही रास्ते हैं या तो इनकी चापलूसी करे, इनकी हर बेवकूफों वाली बातों पर इनके साथ हँसे या छोड़ कर चला जाए. यहाँ गरीब बच्चे आते हैं पर इन लोगो ने इस तरह का माहोल बना के रखा है की वो गरीब बच्चा कुछ दिन में ही भाग जाता है, आखिर ये गरीब बच्चा किस्से दोस्ती करे, इंसान अपने जैसे से ही दोस्ती करता है ना, उसके जैसा यहाँ कोई नहीं है. तो वो चला ही जायेगा. ये लोग इस तरह के नाटक सबके साथ करते हैं. खैर तुम्हारा अच्छा फैसला है. खूब मेहनत करो, पढाई करो, तुम्हारा टॅलेंट इस सी ई सी का मोहताज नहीं है, देखना जब तुम इसको लात मार के जाओगे और दुनिया में एक बड़ी शख्सियत बनोगे तो ये जो लोग आज यहाँ हैं इन्ही के बच्चे तुम्हे ही चीफ गेस्ट बनाकर बुलाएंगे. ये जिनके बच्चे हैं वो एक ज़माने पहले इसी सी ई सी के मेंबर्स थे और आज जो चीफ गेस्ट ये लोग बुलाते हैं वो इनके बाप दादों के तुम्हारी ही तरह तड़पाये हुए लोग हैं, अल्लाह इन्साफ ज़रूर करेगा. उसने किया है और करके दिखाया है लेकिन इन्हे कभी शर्म नहीं आएगी. क्योकि सर स्येद पर इन लोगो का कॉपीराइट है और यूनिवर्सिटी इनके घर की ''लौंडी'' है. अब जाओ, और ज़िन्दगी के बेहतर रास्ते चुनो.''
(Note: It is a fiction, resemblance to any person is just a coincidence)
ha ye baat 100% tru h gao se jane wale gwar Logo ke sath ye Sahar wale Amir Log ke bache ....ghtiya or hikayat bhari Nazro se dekhte h ...ye Soch Badalni chahiye....jab ye Log Apno ke Sath Aisa Suluk karenge to gair hamare Sath kya karenge...gour kerne ki baat h..
ReplyDeleteThank You Very Much for Your Reply and giving your precious time to this piece of writing.
DeleteHam Allah Se Dua Karte Hain Ki Allah Un Sab Logo Ko Aql E Saleem De. Aaameen.
Delete