Sunday, 17 April 2016

बोलते जानवर

समाज झूठा है. समाज में रहने वाले ''बोलते जानवरों'' ने झूट बोल बोलकर सच्चे लोगों का जीना दुश्वार कर दिया है. हम ऐसे मुक़ाम पर खड़े हैं जहाँ हमें हर बात का इम्तिहान देना होता है. एक लम्बे अर्से के बाद एक इंसान दूसरे पर यकीन करता है. सिर्फ इसी झूट की वजह से मरते हुए को कोई पानी नहीं पिलाता. एक्सीडेंट हो जाए तो कोई हॉस्पिटल नहीं ले जाता. मैंने बहुत पहले कहा था 'इंसानियत मर चुकी है' पर मेरी किसी ने नहीं सुनी. 
मैंने समाज से अपना नाता इसीलिए तोड़ा क्योकि यहाँ हर कोई एक दूसरे को शक की निगाह से देखता है. किसी के करीब जाने से पहले सोचना पड़ता है कही ये शख्स हमें कोई चोट तो नहीं पहुंचाएगा. ऐसे में दम तो सिर्फ हम जैसे चंद सच्चों का ही घुटता है. झूठा तो आज भी मौज मार रहा होगा. मैंने हर उस जंजीर को तोड़ दिया है जिसने मुझे सामाजिक बंधन में बाँध रखा था और ज़हन की हर खिड़की को खोल दिया है. मोहब्बत का चराग़ अभी भी मेरे दिल में जलता है. शायद अब बुझने वाला है. मुझे पसंद नहीं आता जब कोई मुझे शक की निगाह से देखता है.
सच्चाई को बड़ी बेरहमी से कुचला गया है. बोलते जानवर. ये हमेशा झूट बोलते रहेंगे. नुकसान सिर्फ हमें होगा. हम एक दिन इस जहान से दूर चले जाएंगे. बहुत दूर. तुम्हारी पहुँच से भी दूर. तन्हाई में जब तुम हमारे बारे में सोचोगे तब तुम्हे अहसास होगा तुमने सच्चाई को ठुकरा दिया. उस वक्त तुम कहोगे ''काश''. हम एक दिन मर जायेंगे पर हमरी तहरीरें तुम्हे हमारी याद दिलाएंगी. इन्ही तहरीरों को पढ़कर तुम्हारी नयी नस्लें इंक़िलाब लिखेगीं. तुम देखना. हम तो अपने वीराने में खुश हैं. पहले भी तनहा थे और आज भी तन्हां हैं. इंसान से वफ़ा की उम्मीद हमें कभी नहीं थी. 
हमारी किताबें दुनिया की बेहतरीन लाइब्रेरी में मिलेंगी. हमारे उन्हीं लफ़्ज़ों को पढ़ पढ़ कर तुम्हारी आँखें रो पड़ेगीं. हमारी इन्ही तहरीरों में एक कसक तुम्हे ज़रूर मिलेगी जिन्हे सिर्फ तुम्ही महसूस कर सकते हो और कोई नहीं. ये चीख चीख के कह रही होंगी ''काश'', सच्चाई को मारा ना गया होता तो हम साथ होते. बोलते जानवर. झूट बोल बोल कर सच्चाई को मार बैठे और इसका भुगतान हमें देना पड़ा, अपनी क़ुरबानी से. काश हम साथ होते.  ये पहाड़, दरख़्त, दरिया ये सब गवाह है हमारी सच्चाई के. हमारी मोहब्बत के. ''काश'' ये बोलते जानवर!
तुम्हे पता है वो रतजगे जो हमने तुम्हारी याद में किये हैं, वो इंतज़ार के लम्हे, हमारी नज़रों की वो कसक जो इस बात की मुंतज़िर थीं की तुम आओगे. हमारी मोहब्बत के लिए. लेकिन इन बोलते जानवरों ने हमारे सच को सच कहाँ रहने दिया और तुम्हे कभी इतना होश ना आया की सच को हमारी आँखों में झाँक कर देख लो. बोलते जानवर. इन्होने सच को मार दिया है. हम जा रहे हैं बहुत दूर, तुम्हारी पहुँच से. एक दिन तुम्हे इन्तिज़ार होगा जब सच्चाई का तुम्हे इल्म होगा. उस दिन तुम ही हमारी तहरीर को मन ही मन कहोगे,'' इन बोलते जानवरों ने सच को मार दिया और झूट बोल बोल..........................................................
लेखक: यासिर अरफ़ात तुर्क 

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