Monday, 14 December 2015

बड़े लोग: शेरकोट के माजिद की कहानी

माजिद छटी क्लास में पढ़ रहा था। माजिद के अब्बू शेरकोट के एक ब्रश के कारखाने में काम करते थे। माजिद हिन्दुस्तान के उन आम बच्चों में से एक था जो एक दिन में दो रूपये खर्च करके ये समझते थे की आज बहुत फ़िज़ूलखर्ची की। उस के अब्बू सुबह सात बजे कारखाने चले जाते और रात को देर रात घर वापिस आते। माजिद के अब्बू अपना और अहले खाना के पेट को भरते भरते अपने आप को भूल गए थे। सोचते थे इतनी महंगाई और चार बच्चों का साथ। आखिर कैसे गुज़ारा हो पायेगा। माजिद छठी दर्जे में था पर अपने साथ के बच्चों से उसका ज़हन बहुत आगे था। वो जब अपने मोहल्ले के बच्चो को देखता तो उसके ज़हन में ये सवाल आते थे की ये लोग हमसे अलग क्यों हैं। जब भी वो मैदान में खेलने जाता तो बाकी बच्चे उसे अपने साथ नहीं खेलने देते थे। एक दिन उस ने दूसरे बच्चे को ये कहते हुए सुन लिया ''मेरे अब्बु ने मना किया है इसके साथ खेलने को, ये छोटे लोग हैं''. ये बात माजिद के दिमाग में बैठ गयी।  
एक दिन उस के मासूम से ज़हन ने ये बात अपनी अम्मी से पूछी ''अम्मी! ये बच्चे मुझे अपने साथ क्यों नहीं खेलने देते''. 
''बेटा, ये बड़े लोग हैं. तुम्हारे अब्बु इनके कारखानों में नौकरी करते हैं. इनकी और हमारी कोई बराबरी नहीं है'', अम्मी ने समझाते हुए जवाब दिया।
''पर अम्मी मोलवी साहब ने मस्जिद में बताया की इस दुनिया में सब बराबर हैं, फिर ये हमें छोटा क्यों समझते हैं'' उस ने बड़े भोलेपन से कहा। 
माजिद की अम्मी ने उस की इस मासूमियत को देख कर सोचा की काश उसका जवाब उनके पास होता। उस वक्त अम्मी ने उस की बात काट ज़रूर दी थी लेकिन माजिद का ज़हन जो बहुत तेज़ चलता था उसमे सवाल चलते ही रहते थे। उस के दिमाग में अम्मी के लफ्ज़ ''ये बड़े लोग हैं'' घर कर गए। अब माजिद जब भी मैदान में खेलने जाता तो बड़े घरों के बच्चों के पास कभी नहीं जाता। मासूम से ज़हन में बड़े लोग और छोटे लोग की एक दीवार खिंच गयी थी। शायद वह अकेला नहीं था जिसके ज़हन में ये दीवार खिंची थी उसके जैसे बहुत ऐसे बच्चे थे।
गर्मियों के दिन थे माजिद के अब्बू की तबियत अचानक खराब हुई जल्दी जल्दी में उन्हें धामपुर के एक अस्पताल में ले जाया गया। अब्बु की हालत दिन ब दिन और ख़राब होती गयी और वो बीमार रहने लगे। एक दिन अब्बु ने मौत को गले लगा लिया। उनकी मौत जिस बीमारी से हुई वो बीमारी उन्हें सूअर के बाल के काम करने से हुई। सूअर के बाल में जो गन्दगी होती है उससे उनको बीमारी लग गयी थी और वो बीमारी धीरे धीरे बढ़ती गयी। कारखाने के मालिक को जब ये पता लगा तो उसने अब्बु की कारखाने से छुट्टी कर दी और दस हज़ार रूपये इलाज कराने के लिए दे दिए। दस हज़ार में क्या इलाज हो पाता? एक दिन मौत को गले लगाना ही था। 
ज़िन्दगी बड़ी मुश्किल हो गयी थी। अम्मी ने इद्दत पूरी करके कारखाना मालिकों के घरों में कपडे धोना और झाड़ू लगाना शुरू कर दिया। एक बड़ा भाई था उसने भी लोगों के घरों में काम करना शुरू कर दिया। इस तरह ज़िन्दगी चलती रही। रोज़ फ़ाक़े खीचना घर वालों की आदत हो गयी थी। माजिद अब नवी दर्जे में आ गया था। उस के दिमाग में बस यही चलता था ''बड़े लोग और छोटे लोग''. माजिद ने ये फैसला लिया की वो एक दिन अपने शहर के कारखाना मालिकों की ही तरह बड़ा आदमी बनेगा। वह भी शेरकोट के आम बच्चों की ही तरह एक गाड़ी और एक मकान का ख्वाब देखने लगा। ज़िन्दगी का एक ही मकसद बना लिया क़ि उसे बड़ा आदमी बनना है।  
माजिद बारह्वी दर्जे में आ गया। अम्मी ने कहा की वो कोई काम सीख कर सऊदी अरब चला जाए लेकिन उस के दिमाग में तो बड़ा आदमी बनने की धुन सवार थी। घर वालों की एक न सुनी और रात की तारीकी में घर से भाग गया। किसी ने बताया की अलीगढ में एक यूनिवर्सिटी है वो अगर वहां पढ़ेगा तो बहुत आगे निकल जाएगा। माजिद अलीगढ आ गया। अलीगढ पहुंचकर उसने मेहनत मज़दूरी की। वक्त कटता गया। माजिद को अलीगढ में दो साल हो गए थे। तब तक उस ने प्राइवेट बारहवीं भी कर ली थी। अगले तीन सालों में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से बी ऐ भी कर लिया। और फिर वो अलीगढ से देल्ही चला गया। देल्ही में उसने जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी से एम ऐ किया। इसी बीच उसने विदेश की यूनिवर्सिटी से पीएचडी के लिए अप्लाई कर रखा था। माजिद को इंग्लैंड की एक अच्छी स्कालरशिप मिल गयी और वो इंग्लैंड चला गया। 
शेरकोट से इंग्लैंड तक के सफर में उसे वक्त का पता ही नहीं चला। उसको आज भी एक ही धुन सवार थी बड़ा आदमी। माजिद ज़िन्दगी की ऊंचाइयों को छूता गया और एक दिन बहुत जाना माना राइटर बन गया। आज वह इतना बड़ा आदमी बन गया था की बड़े बड़े उसके सामने छोटे पड़ गए थे। इस सफर में बहुत परेशानियां आयीं। अब ज़ाहिर है एक मज़दूर के बच्चे को फूटपाथ से उठकर महल में जाने में कितनी परेशानियां आएगी। उसे एंजेलिना नाम की लड़की से मोहब्बत हो गयी और वो उससे शादी करके इंग्लैंड में ही शिफ्ट हो गया। एक दिन माजिद को उसके भाई का फ़ोन आया की उसकी अम्मी की तबियत बहुत ख़राब है और वो अपनी आखिरी साँसे गिन रही हैं, उनकी ख्वाहिश है क़ि वो मरने से पहले एक बार माजिद को अपने सीने से लगाना चाहती हैं। 
अगली सुबह माजिद एयर इंडिया की फ्लाइट से अपनी बीवी और आठ साल के बच्चे के साथ हिंदुस्तान पहुंचा। शेरकोट पहुंचा तो देखा वहां की आबो हवा सब बदल गयी थी। सब कुछ था पर अब कुछ पहले जैसा न था। लेकिन एक बात आज भी वही थी वो था वहाँ का अमीर और ग़रीब। अमीर और अमीर हो गया था, ग़रीब और ग़रीब हो गया था। जिस शहर को माजिद ने छोड़ दिया था आज उस शहर के बच्चे माजिद को किताबों और अखबारों में पढ़ते थे। माएँ अपने बच्चों को उस के किस्से बड़ी शान से सुनाती थीं। बाप अपने बेटों को माजिद के जैसा बनने की सलाह देते। गाडी जैसे ही उसके घर के सामने पहुँची तो उसने देखा उसके शहर का हर जाना माना अमीर उसके इस्तेकबाल के लिए खड़ा है। वो बच्चे भी अब बड़े हो गए थे जिन्होंने उसे कहा था की हम छोटे लोगों के साथ नहीं खेलते। अलबत्ता खैर मक़्दम के लिए उसके घर मौजूद थे।
उस को आये हुए दो दिन हो गए थे वो सबसे मिला। हर इंसान उसे इस तरह मिल रहा था जैसे बीते हुए कल में कुछ हुआ ही न हो और उन्हें पता भी कैसे होता जो इंक़िलाब चल रहा था वो तो सिर्फ माजिद के दिमाग में था। माजिद सोच रहा था कितनी अजीब दुनिया है शेरकोट की। यहाँ हर इंसान मफाद परस्त है। हर किसी को एक दूसरे से नहीं उसके पैसे से प्यार है। पैसे के लिए ये लोग कितना भी ज़मीन पर गिर जाते हैं। कोई ग़रीब होता है तो उसको अपने साथ बैठाते हुए कतराते हैं और अमीर अगर ज़लील इंसान भी हो तो उसे बड़ी शान से अपने पास बैठाते हैं। ये कैसे कारोबारी लोग हैं। ये कैसी दुनिया है। माजिद इसी उधेड़ बुन में खोया हुआ था की अचानक उसे अपने बचपन का खेलने वाला मैदान याद आया। वो अपने बेटे फरहान को लेकर उस मैदान में आ गया जहाँ वो खेलता था।  
अब मैदान पहले जैसा नहीं था। अब आम लोगों के लिए बंद हो गया था। वहाँ सिर्फ कुछ बच्चे ही खेल रहे थे। एक बच्चा साइड में बैठा था। वो खेल नहीं रहा था। सिर्फ खेल को देख रहा था या जो बच्चे खेल रहे थे उनमे से अगर किसी को कोई काम होता जैसे पानी की बोतल लाकर देना या कोई दूसरा काम कर देता। माजिद उसके पास गया।  
''आपका नाम क्या है?'' माजिद ने उस बच्चे से पूछा। 
''जी, आफताब'' बच्चे ने जवाब दिया।  
''क्या करते हो?'' माजिद ने सवाल किया। 
''में कारखाने में काम करता हूँ'' आफताब ने कहा।  
''तुम इन बच्चों के साथ नहीं खेलते'' 
''नहीं''
''क्यों''
''ये बड़े लोग हैं'' आफताब ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया।
उस बच्चे के ये लफ्ज़ माजिद के ज़हन को झिंजोड़ गए। वो अपनी ज़िन्दगी के उस माज़ी में खो गया जिससे वो हमेशा किनारा करता रहा। ये लफ्ज़ उसके लिए कितना दर्दनाक था। माजिद उस बच्चे को ये नहीं बता पाया की वो जिन्हे बड़े लोग कह रहा है वो सिर्फ शेरकोट में ही बड़े लोग हैं। शेरकोट से बाहर बड़े लोग इन्हे नहीं कहा जाता। हर जगह के अपने बड़े लोग होते हैं। जाहिल समाज में जिसके पास पैसा होता है वो बड़ा होता है। पढ़े लिखे समाज में जो बहुत पढ़ा लिखा होता है वो बड़ा होता है। शेरकोट के ये बड़े लोग उन जगहों पर क़दम भी नहीं रख सकते जिन जगहों पर एक पढ़ने वाला बच्चा जा सकता है। माजिद को ख्याल आया की आज जो उसका समाज है उसके सामने ये शेरकोट के बड़े लोग छोटे हैं। इन बड़े लोगों के ख्वाब सिर्फ एक गाडी और एक बंगला होता है। आज वह जिस ज़िन्दगी में जीता है वहां गाडी और बंगला ख्वाब नहीं बल्कि ज़रुरत है।
माजिद अपनी सोच से बाहर आया तो देखा फरहान उन बड़े घरों के बच्चों के साथ खेल रहा है। आफताब पहले की ही तरह बैठा हुआ इस बात का इन्तिज़ार कर रहा है कि कब छोटे मालिक आवाज़ दें और कब वो भागे। उस ने एक नज़र आफताब पर डाली और उठ खड़ा हुआ। फरहान के पास गया और बोला ''फरहान''
''जी पापा'' फरहान बोला।
''आप इन बच्चो के साथ मत खेलिए'' माजिद ने कहा।
''क्यों पापा'' फरहान ने बड़ी मासूमियत से पूछा।
माजिद ने ज़िन्दगी भर के दर्द को अपने दिल में समेटते हुए कहा,''क्योकि ये छोटे लोग हैं, ये हमारी बराबरी के नहीं''.   

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