Tuesday, 8 December 2015

उदास नस्लें:अलीगढ की सियासत में खोया हुआ कल

अरशद अहमद , ये नाम कभी इतिहास बन पायेगा, ये नाम कभी अपनी पहचान बना पायेगा, ये नाम कभी दुनिया के रुख को बदल पायेगा? इसी उधेड़ बुन में अरशद की सुबह और शाम गुज़रती थी. अरशद एक बहुत ही अमीर घराने में पैदा हुआ लेकिन किस्मत को अरशद की ये ज़िन्दगी मंज़ूर नहीं थी. अरशद जब दस साल का था तब अरशद के वालिद का इंतेक़ाल हो गया. वालिद के इंतेक़ाल के बाद अरशद के घर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. सबसे पहले रिश्तेदारों ने अपने असली चेहरे दिखाए. फिर धीरे धीरे हर इंसान अपने अंदर के जानवर को ज़ाहिर करने लगा. अरशद के वालिद अहले खाना के लिए खूब रूपये और ज़मीन जायदाद छोड़कर गए. पैसा तो जिसके पास था वो हड़प गया. सिर्फ बैंक के एकाउंट्स में जो पैसा था वो अहले खाना को मिला. अम्मी इद्दत में थी और कारोबार खत्म हो गया था. मरते क्या नहीं करते जवान बहनें और माँ का साथ, बैंक के पैसों से ही घर का खर्च चलने लगा. एक दिन तो बैंक से पैसे खत्म होने ही थे. कारोबार के खत्म होने पर अम्मा को ये फ़िक्र सताने लगी की अरशद का मुस्तक़बिल क्या होगा. तब अम्मा से किसी नफीस इंसान ने बताया की अलीगढ में पढाई का खर्च ना के बराबर है अगर अरशद अलीगढ से तालीम हासिल करे तो आगे की पढाई कर सकता है.
अरशद का दाखिला अलीगढ में हो गया. क़िस्मत से अरशद को आफताब हॉल रहने के लिए मिला. दाखिले के फ़ौरन बाद हॉस्टल के लिए अर्ज़ी दाखिल कर दी. तीन घंटे प्रोवोस्ट ऑफिस में बैठने के बाद पानी पिलाने वाले से पता चला की आपकी फाइल जमा हो गयी है अब आप महीने दो महीने में आकर पता कर लिया करें की कमरा कब मिलेगा. अरशद के ऊपर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा था. जेब में सिर्फ बारह सो रूपये ही बचे थे दाखिले की फीस जमा करने के बाद. अरशद की आँखों के आंसुओं को शायद वो शरीफ इंसान महसूस नहीं कर पाया. अरशद अंदर ही अंदर घुटन सी महसूस करने लगा, पूरा बदन गरम होने लगा और पसीने बदन से छूटने लगे. नया शहर, नए लोग और जेब में सिर्फ बारह सो रूपये. पांच बजने वाले थे और ऑफिस बंद होने का वक्त हो गया. अब तो अरशद को ऑफिस से उठना ही था. अरशद अपने बैग के साथ सर स्येद हॉल नार्थ के सामने आकर बैठ गया. लोगो से पता चला की कमरे का किराया कम से कम एक हज़ार रूपये है और इतने ही टिफ़िन का भी हैं. पानी हलक से नीचे नहीं उत्तर रहा  था. फिर किसी ने बताया चुंगी पर एक लॉज है जिसमे दो सो पचास रूपये महीने पर एक कोना मिला जायेगा रहने के लिए, अरशद ने तब चेन की सांस ली. चुंगी पहुंचकर एक कमरा किराए पर लिया. कम से कम सर छुपाने की जगह हो गयी थी.
अरशद रोज़ प्रोवोस्ट ऑफिस के चक्कर काटने लगा लेकिन उसे कमरा नहीं मिला. पैसे खत्म होने लगे. अरशद की दोस्ती एक लड़के से हो गयी थी जिसके पास साइकिल थी. अरशद उससे साइकिल उधार लेकर अलीगढ शहर जाने लगा और घर के सामन की फेरी करने लगा. इससे उसकी कमाई होने लगी. अब कम से कम अम्मा सुकून में थी की बच्चा पढ़ लेगा. अरशद इतना कमाने लगा की अपना और कमरे का खर्च दोनों निकाल लेता. कुछ दिनों बाद छोटे भाई और बहनों के लिए थोड़े बहुत जो पैसे बचते थे वो भी भेज दिया करता था. एक साल बीत गया. बेहेन ने बारहवीं बहुत ही अच्छे नम्बरों से पास की. अरशद ने उसे भी अलीगढ में दाखिला दिलवा दिया. अब अरशद पर खुद का, बेहेन का और घर का, तीन ज़िम्मेदारियाँ थी. अरशद मेहनती था. उसने ज़िम्मेदारियाँ अदा की. अरशद इस ख्याल में रहता की हॉस्टल मिल जाए तो कम से किराये और महंगे खाने से बच जायेगा तो वो पैसा छोटी बेहेन की पढाई के लिए घर भेज दिया करेगा. स्कूल में छोटी बेहेन को रोज़ निकाल दिया जाता पर फीस नहीं पहुंच पाती. तब छोटी बेहेन का स्कूल छूट गया और उसने प्राइवेट पढाई शुरू की. अगर अरशद को हॉस्टल मिल जाता तो उसकी बेहेन की पढाई कभी नहीं छूटती इस बात का ग़म अरशद को हमेशा रहा.
अरशद को दूसरा साल चल रहा था पर उसे हॉस्टल नहीं मिला था. उसके बाद के आये हुए लोग जिनके नंबर भी अरशद से कम थे वो बड़े ठाट से होस्टल्स में रहते थे. अरशद ग़रीब था उसके पास पहनने के लिए भी कपडे नहीं होते थे. गरीब दर दर की ठोकरें खाता. जो बड़े बड़े बाप के बच्चे थे वो सब होस्टल्स में रहते थे पर उस गरीब को कोई होस्टल्स नहीं दे रहा था. अरशद ने ऑफिस के मुलाज़िम से सवाल किया की उसके बाद के आये हुए लोग हॉस्टल में कैसे पहुँच गए तो उन्होंने यूनिवर्सिटी से निकलवाने की धमकी देकर चुप कर दिया. अरशद समझदार था सब समझता था इस धांदली को. जिन लोगो को पहले रूम मिलता था वो किसी ना किसी के जुगाड़ से अंदर पहुँच जाते थे. अरशद अपना दर्द कभी किसी को नहीं बता पाया और अलीगढ मुनाफिक यूनिवर्सिटी के मुनाफिक कभी उसका दर्द जान नहीं पाये. दूसरे साल के आखिर में उसे रूम मिल गया. उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था. वो पागलो की तरह अपने कमरे में गया. हाथ में अपना सामन लिए जैसे ही वो कमरे में दाखिल हुआ एक दहाड़ ने उसका इस्तक़बाल किया. अरशद तो घबरा गया. पता चला हॉस्टल में सीनियर और जूनियर का माहोल है. सीनियर से इजाज़त मिलने पर ही उसे कमरे में रहने की इजाज़त मिलेगी.
अरशद रोज़ कमरे के सीनियर के पास इजाज़त लेने जाता और सीनियर उसे ये कहकर टाल देते अभी कुछ दिन रुको मेरा भाई घर से आ रहा है. उसके जाने के बाद तुम कमरे में आ जाना. महीनों गुज़र गए पर उन सीनियर का भाई नहीं आया. चार महीने बाद उनका भाई आकर कमरे में रहने लगा. उसको रहते हुए भी महीने हो गए. अरशद देखता है की उनका भाई तो वापिस जाने का नाम ही नहीं ले रहा. अब उसका आखिरी साल था. इम्तिहान भी करीब थे. इसीलिए उसने फेरी करनी छोड़ दी थी. पैसे की किल्लत थी उसने सोचा जो जमा पूंजी है उसी से काम चल जायेगा. अरशद कमरे के सीनियर के पास गया तो उसने हमेशा की तरह फिर मना कर दिया. अब तो अरशद के गुस्से का ठिकाना ना रहा उसने ऑफिस जाकर एक अर्ज़ी प्रोवोस्ट को दाखिल की. उसकी अर्ज़ी देख कर प्रोवोस्ट ने आँख उठाकर अरशद को देखा फिर मुलाज़िम से उसके सीनियर को बुलवाया. अरशद को बाहर बैठने के लिए कहा गया. घंटो अंदर मीटिंग चली और हँसने की आवाज़े आती रही. बहुत देर बाद सीनियर भाई बाहर निकले और अपनी पूरी तनी हुई छाती लेकर प्रोवोस्ट ऑफिस से बाहर निकल गए. अरशद फिर से कुछ खोया खोया महसूस कर रहा था.
उस दिन के वाकये के बाद अरशद अलीगढ मुनाफ़िक़ यूनिवर्सिटी से बदज़न हो गया और बस इसी फिराक में रहने लगा की किसी तरह अलीगढ छोड़ देगा. उसका फाइनल रिजल्ट आने वाला था. इम्तिहान के बाद अरशद बहन को लेकर घर चला गया. घर पर खबर मिली की अरशद को अलीगढ मुनाफ़िक़ यूनिवर्सिटी में गोल्ड मेडल मिला है. अरशद की कामयाबी से पूरा गाव ख़ुशी से झूम उठा. अरशद ये सुनकर पास पड़ी चारपाई पर बैठ गया. उसके पास सिवाए आंसुओं के और कुछ ना था. अरशद यूँ ही मुनाफ़िक़ों के उस गिरोह के बारे में सोचने लगा जिन्होंने उसे अलीगढ में इतनी तकलीफ दी और उसे एक रूम तक नहीं दिया. अरशद की कामयाबी पर दूसरा तोहफा उसे तब मिला जब उसे पता चला की उसे सिविल के इम्तिहान की तैयारी के लिए वजीफा मिला है. अरशद ने अलीगढ छोड़ दिया और दिल्ली में आ गया. दिल्ली की चिलचिलाती धुप और भागती दौड़ती ज़िन्दगी में दो साल कैसे बीते पता नहीं चला. अरशद सिविल के एग्जाम से फारिग हो गया था और रिजल्ट के आने तक एक नौकरी पर लग गया था.
सुबह सुबह उसके मोबाइल की घंटी से उसकी आँख खुलीं. अरशद देख कर चौक गया उसकी अम्मी पड़ोस के टेलीफोन से चार पांच बार कॉल कर चुकी थी. अरशद ने अम्मी से बात की तो अम्मी ने बताया की वो सारी रात सो नहीं सकी थीं. बेचैनी की वजह से सुबह का इन्तिज़ार कर रही थी. कहने लगीं, ''आज मेरे चाँद के इम्तेहान का नतीजा आने वाला है, बस सारी रात सजदे में पड़ी थी''. अरशद तो ये भूल ही गया था आज उसका सिविल के इम्तिहान का रिजल्ट आने वाला है. अम्मा से फ़ोन पर बात करके अरशद का दिल किसी काम में नहीं लगा और उसने ऑफिस में फ़ोन करके छुट्टी ले ली. अरशद दोपहर का खाना खाकर लेटा ही था की उसके दोस्त की कॉल पर उसकी आँख खुलीं. दोस्त की आवाज़ सुनते ही अरशद के हाथ से फ़ोन छूट गया. अरशद का शरीर ज़मीन पर गिर गया. आँखों से आंसूं धार धार बहने लगे. आज अरशद की आँखों में अब्बा का मरा हुआ चेहरा, माँ और छोटी बहन की आँखों में आंसू, रिश्तेदारों की चालाकियां, हॉस्टल के सीनियर का परेशान करना, प्रोवोस्ट की हंसी, बारादरी की फेरी, सब याद आ रहा था. आज अरशद आई ऐ एस अफसर बन गया था यानि इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर. 
अरशद ने मंसूरी से ट्रेनिंग पूरी करके आई ऐ एस की सर्विस ज्वाइन की. ये एक इत्तेफाक ही था की कुछ ही सालों बाद अरशद को अलीगढ ट्रांसफर किया गया. अरशद डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के औहदे पर था. आज अरशद एक रॉयल ज़िन्दगी जीता था. इन दिनों यूनिवर्सिटी में दो गुटों के बीच झगड़ा हो गया. रात भर पूरी यूनिवर्सिटी छेत्रवाद की आग में धू धू कर जलती रही. अगली सुबह गिरफ्तारियां शुरू हुई. अलीगढ एडमिनिस्ट्रेशन का दखल पहली बार यूनिवर्सिटी में उस वक्त के वी सी की इजाज़त से हुआ.  अरशद पूरी फ़ोर्स के साथ यूनिवर्सिटी में दाखिल हुआ. ये एक इत्तेफाक ही था की दंगाई उसी हॉस्टल में ही पेठ बनाये हुए थे जिसमे अरशद को रूम नहीं दिया गया था. प्रॉक्टर की टीम को अंदर भेजा गया. सौ से ज़्यादा प्रॉक्टर की टीम ने दस लोगों को गिरफ्तार किया जिनमे अरशद को चौकाने वाली बात ये थी की उनमे वो सीनियर भी था जिसने उसे कमरे में घुसने नहीं दिया था. प्रॉक्टर की टीम उसको घसीट कर ले जा रही थी की अरशद ने आवाज़ लगाई-ऐ इधर आओ. क्या नाम है? जनाब! तस्ताग़ीर खान. मुझे पहचाना? तस्ताग़ीर खान के चेहरे पे चढ़ते उतरते रंग बता रहे थे की उसे शायद अरशद याद था.







(It is a fiction, resemblance to any person is just a coincidence.) By: Yasir Arafat Turk

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