Wednesday 2 March 2016

मज़दूर बनाम बड़े लोग: अलीगढ की कहानी

दुनिया दो हिस्सों में बटी हुई है; बड़े लोग और छोटे लोग, मालिक और मज़दूर, अमीर और गरीब. हर ताकतवर इंसान अपने से कमज़ोर को दबा रहा है. ज़ुल्म अपनी आखिरी हुदूद से भी तिजावूस कर चूका है. लाक़ानूनियत आवागर्दी करती फिर रही है. इंसानों के मोहल्लों में आदमी हैवानियत की घुटन से दम तोड़ रहा है. सड़के लाल हो चुकी हैं. इंसान बदहाल है परेशान है. डर इन दोपायों का मुक़द्दर बन गया है. फिर भी मैं इंक़िलाब की राह तकता हूँ. हस्बे मामूल हर सुबह इंक़िलाब के लिए निकल पड़ता हूँ. शाम को थका हारा, हैरान परेशान, बदहाल, अपने बिस्तर पर थकन को दम तोड़ने के लिए गिर पड़ता हूँ. उम्मीद है, यकीन है, ईमान है, एक दिन इंक़िलाब ज़रूर आएगा. ज़ुल्म मिट जायेगा. ज़ालिम का खात्मा एक इंसान ही करेगा. ज़ुल्म को मिटना ही होगा. नहीं मिटा तो ज़मीन हिला दी जाएगी, सूरज की चमक तेज़ होने से ज़ुल्म की आँखें चौंधिया दी जाएँगी, हमारी नफरत की तपिश इन ज़ालिमों को जला के राख कर देगी. इंक़िलाब आएगा. ये रंगे हुए गीदड़ बेनक़ाब होंगे.
ये कहानी मज़दूरों के उन बच्चों की कहानी है जिसे में अपनी क़लम से लिख रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि इन गीदड़ों पर शायद ये असर अंदाज़ हो और बदलाव आये वगरना ये बात तो में जानता हूँ ये कमज़र्फ झूट, और फरेब में पीएचडी हैं और इनकी चमड़ी इतनी मोटी है के इस पर मेरी बात का तो क्या बन्दूक से निकली गोली का भी असर न हो. फिर भी लिखता हूँ कि थोड़ी बहुत शर्म इन्हे बदलने के लिए मजबूर कर दे. में अपने रीडर्स को अलीगढ में होने वाली इस सच्चाई से वाकिफ कराना अपना फ़र्ज़ समझता हूँ जिसके विक्टिम, अकेला में नहीं, मेरे जैसे वो हज़ार बच्चे हैं जो अपनी दास्ताँ किसी से कहे बिना यहाँ से चले गए. इनका इस तरह चले जाना ज़ालिम के लिए फायदेमंद ही साबित हुआ. इन ज़ालिमों ने मज़हब, क़ौम ओ मिल्लत, जैसे लफ़्ज़ों को अपना हथ्यार बना रखा है जिससे ये वक़्तन बे वक़्तन ग़रीब मज़दूर के बच्चों को बेवक़ूफ़ बना कर ज़िन्दगी में मिलने वाले बेहतरीन मोके हथिया लेते हैं. मज़दूर का बच्चा हमेशा कि तरह मात खा जाता है लेकिन में वो बदजुबान शख्स हूँ जो अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों को इस ब्लॉग के ज़रिये बयां कर रहा हूँ. मुझे लगता है इस ब्लॉग को पढ़कर ये ढोंगी शायद ज़ुल्म करना बंद कर दें. नई नस्लों से ये मश्वरा दे रहा हूँ के अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों के खिलाफ लड़ों, अगर लड़ न पाओ तो उसे कही लिख कर छोड़ जाओ ताकि आने वाली नस्ल तुम्हारे हक़ के लिए लड़े.
पिछले दिनों कल्चरल एजुकेशन सेंटर में होने वाले ज़ुल्मों को हमने बयान किया. आप लोगों ने पढ़ा किस तरह मुझे लिटरेरी क्लब में दाखिला नहीं दिया गया. मेरी ज़ुबान मेरे लिए रुकावट का सबब बनी. मात्रभाषा में ''माँ'' ने जो मुझे ज़ुबान दी उस ज़ुबान को सी ई सी के बड़े लोगों ने हिकारत कि निगाह से देखा. कोई मेरी माँ को हिक़ारत कि निगाह से देखे ये में कैसे बर्दाश्त कर सकता हूँ लेकिन फिर भी में इन्हे कुछ नहीं कहता क्योकि ये बदबख्त मेरी क़ौम का एक हिस्सा हैं जो हमारे लिए किसी नासूर से कम नहीं. कल्चरल एजुकेशन सेंटर पर इन्ही बड़े लोगों ने अपना कब्ज़ा जमा के रखा है. मज़दूर के बच्चे अगर भूले बिसरे वहां चले भी जाएँ तो उन लोगों से ये लोग बिलकुल भी घुलते मिलते नहीं हैं. बात बात में उसे उसकी ''औकात'' याद दिलाते हैं. सामने से कुछ नहीं कहते बस बात को घुमा कर कहते हैं. जैसे मज़दूरों के बच्चों के सामने ये ज़िक्र करना कि मेरी जीन्स दस हज़ार रूपये की है, मेरी मम्मा कल लंदन से वापिस आई हैं, हमारे घरों से एयर कंडीशनर की ठंडक पास के मोहल्लों में भी पहुँचती है. मज़दूर का बच्चा किसी डिस्कशन में बोलना भी चाहे तो जान बूझकर अंग्रेजी को इलीट क्लास वाले तलफ़्फ़ुज़ में कह देते हैं जिससे ये ग़रीब अहसास ऐ कमतरी का शिकार हो जाते हैं और सी ई सी छोड़ देते हैं. सी ई सी में कई सारे क्लब हैं. लेकिन सब क्लब में ऐसा नहीं होता. कुछ क्लब्स बहुत अच्छे हैं. लिटरेरी क्लब जिसमे प्रेस्टीज बहुत ज़्यादा मैटर करता है वहां पर इस तरह की हरकते आम बात है. 
हमें ताज्जुब इस बात पर नहीं है की ये लोग बड़े लोग हैं और हम इनके जैसे नहीं हैं. ताज्जुब इस बात पर है जब ये ढोंगी मज़दूरों पर लम्बे लम्बे लेक्चर देते हैं. दस हज़ार की पेंट और पांच हज़ार की शर्ट पहनकर मज़दूरों के हक़ के लिए लड़ने का नाटक करते हैं. अगर में इनसे कहूँ की चलो दस रात हमारे गाव में गुज़ारो तो नानी याद आ जाएगी. तब शायद मज़दूरों पर दोबारा लेक्चर न दें. पिज़्ज़ा खाने वाले मज़दूरों को क्या खाना चाहिए इस पर तक़रीर करें तो लानत है ऐसे समाज पे जो इन्हे बोलने का हक़ देता है. 
पिछले दिनों वाईस चांसलर साहब ने यूनिवर्सिटी में बाइक ना चलाने का फरमान जारी किया. उनका मानना था के जो बच्चा बाइक रख सकता है वो हॉस्टल से बाहर भी रह सकता है. लेकिन वाईस चांसलर इस बात से बेपरवाह दिखे की यूनिवर्सिटी में बाइक होस्टलर नहीं चलाता बल्कि प्रोफेसर साहब के साहबज़ादे और साहबज़ादियां चलाते हैं. लेकिन शेह्ज़ादों और शहजादियों के खिलाफ कुछ बोलना किसी की हिम्मत नहीं ये तो में एक काफ़िर हूँ जो इनसे लड़ाई किये बैठा हूँ. वाईस चांसलर साहब का वो बयान मज़दूरों के बच्चों के लिए बहुत ही शर्मनाक था. हालांकि में उनकी बात से इत्तेफाक रखता हूँ की यूनिवर्सिटी में बाइक नहीं चलनी चाहिए पर मेरा इख्तलाफ उनसे महज़ इस बात पर है की उन्होंने सिर्फ ये ही क्यों कहा जो बच्चा बाइक रख सकता है वो हॉस्टल के बाहर भी रह सकता है. इस बात से उन्होंने ये साबित करना चाहा की सिर्फ बाहर से आने वाले बच्चे बाइक से चलते हैं. में इस बात पर चैलेंज करते हुए लिखता हूँ की यूनिवर्सिटी में पढ़ने आने वाले शहज़ादे और शहजादियाँ स्कूटी, बाइक और कारें इस्तेमाल करती हैं नाकि ये ग़रीब मज़दूर. लेकिन प्रिंस और प्रिंसेस से कोई कुछ कहने वाले नहीं. 
मुझे आज भी याद हैं मेरा पहला दिन जब मेने अलीगढ में क्लास अटेंड की. प्रोफसर साहब अंग्रेजी में बोलते तभी किसी ने पीछे से चुटकी ली सर ज़रा हिंदी में भी दोहरा दीजिये इनको भी समज आ जाए और पूरी क्लास हंस पड़ी. अंग्रेजी ना हुई हव्वा सा हो गया. मुझे उस दिन ये बात बहुत बुरी लगी. इसलिए नहीं की मेरी अंग्रेजी अच्छी नहीं थी बल्कि इसलिए की कोई किसी के ऊपर ऐसे कैसे हंस सकता है. मेरी अंग्रेजी उस वक्त भी अच्छी थी और आज भी. कुछ लोग यूँ भी हस्ते हैं की में हिंदी में लिखता हूँ. बेवक़ूफ़ हैं और हमेशा रहेंगे. मज़दूरों के बच्चे जो कल्चर और ज़ुबान के हिसाब से साहेब के बच्चों से बराबरी नहीं कर पाते जब क्लास में टीचर की बात का जवाब दे रहे होते हैं तो कोई अंग्रेजी बोलने वाला कार्टून उन्हें चुप कर देता है और उस मज़दूर का जवाब दिल में ही रह जाता है. प्रिंस और प्रिंसेस क्लास में होते तो साहेब की आँखों में उनके लिए एक अजीब सी चमक देखने को मिलती जैसे साहेब को घर के लिए बहु मिल गयी हो या दामाद. अक्सर क्लास में देखा की भोजपुरी बोलने वाले बच्चे पर बड़े लोग खूब हँसते. वो बेचारा मन मारकर रह जाता. कई मर्तबा तो मेने महसूस किया ये बेचारे मज़दूर के बच्चे रोने तक को हो जाते लेकिन उनके आंसुओं की परवाह इन बड़े लोगों को कभी नहीं होती. ये तो उनकी आँखों में उमड़ने वाले आंसुओं को कभी महसूस भी नहीं कर पाते. ज़लील लोग ऐसे ही होते हैं. अल्लाह ताला इनके दिलों से रहम छीन लेता है. 
में एक गाँव से हूँ हालांकि में अपनी ज़ुबान और कल्चर से अल्हम्दोलीलाः इन बड़े लोगों से भी बेहतर हूँ और अंग्रेजी इनसे अच्छी ही है. फिर भी मुझे ये बात याद आ रही है जब हमारे गाँव में ग़रीब और मज़दूर अपने गंदे कपड़ों में कहा करते थे की अपने 'बालक' को अलीगढ पढ़ने भेजूंगा, वहाँ मुस्लमान बड़ी तादाद में रहते हैं, मेरे बच्चे को आगे बढ़ने में मदद करेंगे. उन बेचारों को ये कहा पता है की ये बड़े लोग उन जैसे मज़दूरों के कपड़ों पर हसंते हैं और उनके बच्चों को हकीर निगाह से देखते हैं. कभी फुर्सत के लम्हों में सोचना में जो लिखता हूँ क्या उसमे थोड़ा बहुत सच है या में महज़ एक पागल हूँ जो इन तहरीरों में अपना फ़्रस्ट्रेशन दिखाता हूँ.
बड़े लोगों के बच्चे जिस माहोल में पलते बढ़ते हैं वो मज़दूरों के बच्चों से अलग होता है. बचपन में ही सारी आसाइश मिलने वाला बच्चा ग़रीब के बच्चों से क्यों मुकाबले में देखा जाता है. ये एक अजीब बात ही होगी की किसी को देल्ही यूनिवर्सिटी में डिबेट में इसलिए नहीं भेजा जाता की उसकी ज़ुबान किसी ख़ास इलाके को बयां करती है. होश की सांस लो. ग़रीब के बच्चों को इंटरनेट चलाना सीखने में ही बीस साल लग जाते हैं जबकि बड़े लोगों की शहज़ादी और शहज़ादा इस तरह की चीज़ों से एक साल की उम्र में खिलौना बनाकर खेलता है. ग़रीब, किसान, मज़लूम, अजलफ़, होश में आओ. संग़ठन में आओ. इन बड़े लोगों से अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों का हिसाब लो. में सी ई सी की एक मिसाल देता हूँ में मानता हूँ बड़े लोगों ने वहाँ नाजायज़ कब्ज़ा कर रखा है और तुम उनके बीच में टिक नहीं पाते इसलिए छोड़ कर चले आते हो. इसका एक हल है इस बार तुम अकेले नहीं बल्कि बड़ी तादाद में जाओ. एक साथ एक ही क्लब में बीस लोग जाओ जो ग़रीब हों, मज़लूम हों, किसान हों, अजलफ़ हों, अर्ज़ाल हों. तब देखना इन बड़े लोगों के होश कैसे फाख्ता हो जाएंगे. तुम्हारी मेजोरिटी होगी. तुम्हारे अपने फैसले होंगे. अगर ये तुम्हे तुम्हारी भाषा, कपडे और खाने जैसे चीज़ों पर दाखिला नहीं देते तो तब तुम बेफिक्र रहो इंक़िलाब लिखा जायेगा. शायद जेल भरों आंदोलन की शुरुआत हम सी ई सी से ही करें. बहुत सारे सवाल हैं जिनके जवाब इन बड़े लोगों के पास नहीं हैं. अलबत्ता मुझे बड़ा अजीब लगता है ये लोग मुझसे कभी ये भी नहीं कहते की ''विद्रोही'' अपनी शिकायत इनसे मुंह ज़ुबानी कर दे और इनके बारे में लिखना बंद कर दूँ. बड़े बेशरम हैं.  
ऐसी बहुत सी कहानियां और मोके हैं जहाँ में ये बता सकता हूँ की हम मज़दूरों के बच्चों पर इन बड़े लोगों ने ज़ुल्म किया पर हम दिल मार कर रह गए. मुझे उम्मीद है कम लिखे को आप बहुत समझेंगे और बदलाव आएगा. बड़े लोगों एक बात याद रखो जब मज़दूर आवाज़ उठता है तो बड़े बड़े तख़्त पलट जाते हैं. तुमने तो सिर्फ छोटी छोटी कुर्सियां रोककर रखी हैं. इन ग़रीब बच्चों से ये तवक्को मत करो की ये तुम्हारे जैसी बातें करें. इन्हे अपनी ज़िन्दगी में जगह दो ताकि ये लोग तुमसे कुछ सीखें और क़ौम ओ मिल्लत की मदद कर सकें. अभी तुम नहीं जानते ये किस तरह अलीगढ पहुँचते हैं. इनकी माएँ रात दिन मज़दूरी करती हैं और तुम लोग उन्ही मज़दूरों तो छूना भी गवारा नहीं करते. तुम्हारे पेट में जो रोटी जाती है वो इन्ही मज़दूरं के माँ बाप उगाते हैं. होश में आओ वगरना जिस दिन ग़रीब जाग गया तो तुम्हारे तख़्त उखाड़ फेंकेगा. इंक़िलाब ज़िंदाबाद.