Sunday 31 January 2016

अधूरा ख्वाब: अलीगढ के नूर मियां और एकेडेमिक कौंसिल

हर रोज़ की तरह आज भी नूर मियां अहले फज्र सोकर उठे. ज़िन्दगी के पचास साल उन्होंने इसी कसरत में गुज़ारे. ये लम्बा अरसा ''बाबू लोग'' की खिदमत करते हुए कैसे कटा पता ही नहीं चला. सुबह उठते ही साइकिल उठाकर तेज़ रफ़्तार से हॉस्टल की तरफ भागते. नूर मियां अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के मुमताज़ हॉस्टल में बेरागिरी करते थे. दिन भर हॉस्टल में नवाब साहब के बच्चो की खिदमत करते करते ये भूल गए के अपने बच्चे भी हैं. ज़िन्दगी ग़ुलामी करते करते ही कटी. इस ग़ुलामी का मेहनताना उन्हें शाम में मिल भी जाता जब ''बाबू लोग'' उनके हाथ पर दस बीस रूपये रख दिया करते. नूर मियां अक्सर ये सोचते के सारी ज़िन्दगी प्रोफेसर साहब और उनके बच्चों की खिदमत की लेकिन उन्हें या उनके बच्चों को इसका क्या अज्र मिला. नूर मियां के दिल में अब साहब लोगों के लिए नफरत पैदा हो गयी थी. प्रोफेसर साहब नूर मिया से ये कहते की घर पर आकर ज़रा ये काम कर देना तो नूर मियां बहाना बना दिया करते. इस बात को प्रोफेसर साहब महसूस करने लगे के जो नूर मियां सारी ज़िन्दगी उनके हुक्म पर एक टांग पर खड़े हो जाते थे वो आज इतना कतराने क्यों लगे हैं.
हस्ब ऐ मामूल नूर मियां अहले फज्र उठे. साइकिल उठाई और चल दिए. यूनिवर्सिटी के मुलाज़िम ने ये रिवाज बनाया हुआ था के वो दफ्तर जाने से पहले हबीब के होटल पर चाय पिया करते थे. नूर मियां भी डॉल ढाते हुए हबीब मियाँ के होटल पर पहुंचे. बाकी दिनों के अलावा आज होटल का माहोल अलग अलग सा था. सब एक दूसरे को मुबारकबाद दे रहे थे. नूर मियां जैसे पहुंचे तो उनके साथ में काम करने वाले सलीम मियां और इदरीस मियां ने उन्हें गले से लगा लिया. चेहरे पर खुशियां साफ़ दिख रही थीं. ऐसा मालूम हो रहा था जैसे बरसो पुरानी थकन उतरी हो. नूर मियां के हाथ में अख़बार थमा दिया. बस, खबर पढ़ते ही लगा जैसे प्रोफेसर साहब ने ज़िन्दगी भर का मेहनताना दे दिया है. चेहरे पर इत्मीनान की एक लहर साफ़ दिखाई दी. अख़बार की तहरीर में लिखा था ''दानिशगाह के मुलाज़िमों के लिए ख़ुशी की खबर, उनके बच्चे कही भी रहें देश या विदेश या बाहर के किसी स्कूल या कॉलेज में पढ़े इंटरनल ही माने जाएंगे''. बच्चों का मुस्तकबिल मेहफ़ूज़ हो गया.
एकेडेमिक कौंसिल के इस फैसले से यूनिवर्सिटी के हालात में तब्दीली आ गयी थी. हर तालिब ऐ इल्म के चेहरे पर फ़िक्र की लहर साफ़ दिख रही थी. हर कोई ये सोच रहा था हम अपनी सीट दूसरों से क्यों शेयर करें. शायद इस वक्त को मोअर्रिख जब भी अपनी क़लम से लिखेगा तो सबसे मनहूस फैसला और सबसे मनहूस दिन अलीगढ के लिए यही लिखेगा.  इस फैसले से यूनिवर्सिटी के हालात बेकाबू होते दिखने लगे. तालिब ऐ इल्म इस फैसले में छिपी सियासत को खूब समझ रहे थे. लेकिन नॉन टीचिंग स्टाफ इस बात को समझने के लिए कतई तैयार नहीं था. अलादीन के चिराग से जिन ने निकल कर उनके दिल की तमन्ना पूरी कर दी थी. इस फैसले ने यूनिवर्सिटी को दो हिस्सों में बाँट दिया था ''बड़े लोग'' और ''छोटे लोग''. यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला हर लड़का और लड़की प्रोफेसर के बच्चो को नफरत की निगाह से देखने लगा. यूनिवर्सिटी में खूब हंगामा हुआ. खूब नारे बाज़ी हुई. लेकिन ये फैसला वापिस नहीं हुआ. मिल्लत के एक चाहने वाले ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज कर दिया. मुकदमा शुरू हुआ. 
इसके बाद अलीगढ के हालत पहले जैसे नहीं थे. अलीगढ जिस तहज़ीब के लिए जाना जाता था अब वो दूर दूर तक नहीं थी. तालिब ऐ इल्म अपने उस्ताद को हकीर निगाह से देखने लगे थे. उन दिनों नफरत अपने चरम पर थी जब हारून ने प्रोफेसर शहरयार खान पर किताब फ़ेंक कर मार दी. बहुत हंगामा हुआ. हालांकि बात हारून की ग़लत थी पर फिर भी स्टूडेंट्स ने उसी का साथ दिया. प्रोफेसर की हैसियत अलीगढ में अब दो कोड़ी की नहीं बची थी. शायद एकेडेमिक कौंसिल के उस फैसले ने ग़रीब समाज में ''नक्सल'' के बीज बो दिए थे. हिंदुस्तान के कोने कोने से मुसलामनों ने एहतेजाज किया. हर ग़रीब उठ कर बोला. प्रोफेसर के बच्चों का यूनिवर्सिटी में जीना हराम हो गया. प्रोफेसर के बच्चों को जिन्होंने ग़रीबों की सीट पर कब्ज़ा कर लिया था उन्हें ग़रीब और दबे कुचले मुसलमान ''बेबीज़'' नहीं ''पपीज़'' कहकर बुलाने लगे. जो अलीगढ प्यार, मोहब्बत, शफ़क़त, इंसानियत, हमदर्दी, और कुर्बानियों की बुनियाद पे खड़ा हुआ था आज नफरत, हसद, लकानूनियत, फरेब, झूट, और उंच नीच की बुनियाद पे खड़ा था. हिंदुस्तानी मुसलामनों ने अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को हकीर और गिरी हुई नज़रों से देखना शुरू कर दिया था. प्रोफेसर और उनके बच्चों को हिंदुस्तानी मुस्लमान उन्ही नज़रों से देखने लगा था जिन गिरी हुई नज़रों से दलित ब्राह्मण को देखता है. 
नूर मियां के चार पोते और पोतियां थीं. जिनमे से एक फरहान का ख्वाब डॉक्टर बनना था. रात दिन मेहनत करता था. मिंटो सर्किल में बारहवीं में पढ़ रहा था. रात दिन एक करने के बाद भी उसका दाखिला मेडिकल में नहीं हो पाया. अगले साल फिर कोशिश की पर फिर भी नहीं हो पाया. उसने आखिरी बार फिर कोशिश पर नाकामी हाथ लगी. सारी इंटरनल सीट पर प्रोफेसर के बच्चे अपना कब्ज़ा कर लेते थे, नॉन टीचिंग के हाथ कुछ नहीं लगता. प्रोफेसर साहब बहुत चालाकी से अपने बच्चों को दिल्ली, बम्बई के सेंट फिडेलिस, डी पी एस, सेंट मर्री, और सेंट ज़ेवियर में पढ़ाने भेज देते और नॉन टीचिंग के बच्चे यहाँ मेहनत कर करके मर जाते. बेहतर स्कूलिंग की वजह से उन्हें दाखिल मिल जाता. ग़रीब वही पिछड़ा रह जाता. बी टेक, मेडिकल, बी एस सी, बी ऐ, सबमे प्रोफेसर के साहबज़ादे और साहबज़ादियां सबसे पहले घुसते. आखिर को एयर कंडीशनर में पैदा होने वाले बच्चों से मुकाबला कोई नूर मियां का पोता तो नहीं कर सकता था. प्रोफेसर के भाई अमेरिका में रहते तो वो अपने बच्चो को अमेरिका भेज देते. अब अमरीका और लंदन से पढ़ कर लौटने वालों से नूर मियां का पोता क्या मुकाबला करता. मरता क्या ना करता आखिर को बी ऐ किया. फरहान ने बहुत मेहनत की थी पर उसे कुछ हासिल नहीं हुआ. वो खामोश रहने लगा था. चुप और अलग थलग. एक दिन अख़बार में खबर छपी की ''अमुवि कैंपस में फँसी लगा कर दी जान''. फरहान हमारे बीच में नहीं रहा था. नॉन टीचिंग स्टाफ को अपनी बेवकूफी का अहसास हो चूका था. पर अब मलाल से कोई फायदा नहीं था. 
मकर की चालों से बाज़ी ले गया सरमायेदार,
इन्तहा ए सादगी से खा गया मज़दूर मात,  
दस साल सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा चलता रहा. एकेडेमिक कौंसिल का फैसला वापिस नहीं हो पाया. अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से माइनॉरिटी करैक्टर भी छीन लिया गया. अब माइनॉरिटी के नाम पर अलीगढ में सिर्फ चंद मुसलामन का चोला ओढ़े हुए कुछ ही लोग बचे थे जो धीरे धीरे अलीगढ को चूस रहे थे. हमारी बदनसीब आँखों ने ये भी देखा के जब अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की हैसियत एक गाव के डिग्री कॉलेज से भी बदतर हो गयी. कल तक जो हुकूमतें हमारे सामने झुकती थी आज जब चाहे अपने नए नए क़ानून बनाकर यूनिवर्सिटी में दखल दे दिया करती थीं. हिंदुस्तानी मुसलमानों की हालत बद से बदतर होती गयी. उसी बीच कॉमन यूनिवर्सिटी एक्ट पास हो गया. अलीगढ के उस वक्त के ''गद्दार प्रोफेसर'' सारे हथकंडे अपनाकर भी अलीगढ को कॉमन यूनिवर्सिटी एक्ट में आने से रोक नहीं पाये. हिंदुस्तान के मुसलामनों ने अलीगढ को कभी पलट कर नहीं देखा. अब बचा भी क्या था. पलट कर देखते तो सिर्फ एक मायूसी हाथ लगती. हुकूमत ने कभी भी गद्दारों को अपने साथ नहीं रखा. कॉमन यूनिवर्सिटी एक्ट में आते ही जितने भी प्रोफेसर थे उन्हें अंदमान निकोबार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओड़िसा और नक्सली इलाकों के कॉलेज और यूनिवर्सिटी में ट्रांसफर कर दिया. शायद उन गद्दारों को अल्लाह पाक इससे अच्छा सबक नहीं दे सकता था. 
वक्त के चलते यूनिवर्सिटी मिल्लत ऐ इस्लाम के दुश्मन आर एस एस के हाथ में आ गयी. माइनॉरिटी स्टेटस तो छीन ही लिया था अब धीरे धीरे माइनॉरिटी करैक्टर को भी अलीगढ से मिटाना शुरू किया. जिस अलीगढ में मस्जिदों की अज़ाने गूंजती थी उसी अलीगढ में मंदिरों की ताने गूंजने लगी. संघियों ने महसूस कर लिया था की अलीगढ से मुसलामनों के वजूद को मिटाने के लिए ज़रूरी है उनकी निशानियाँ मिटाई जाएँ. धीरे धीरे जिन दीवारों पर अरबी और उर्दू लिखी थी वहाँ संस्कृत और हिंदी लिपि इस्तेमाल होने लगी. मस्जिदों को मंदिरों में तब्दील किया जाने लगा. शेरवानियों की जगह लुंगियों ने ले ली. दाढ़ियों और टोपियों की जगह तिलक और भगवे नज़र आने लगे. मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी का नाम बदल कर मदन मोहन मालवीय कर दिया गया. हसरत मोहनी, मजाज़, फैज़, की जगह अब गोडसे, तिलक, वाजपेयी के नाम से सड़के बना दी गयीं. इस तरह अलीगढ से मुसलमानों का वजूद खत्म हो गया. प्रोफेसर और उनके शहज़ादी और शेह्ज़ादों को तो पहले ही भगा दिया गया. कमज़ोर और निहथ्था नॉन टीचिंग स्टाफ चाहकर भी कुछ ना कर सका. 
नूर मियां ज़िन्दगी की आखिरी साँस गिन रहे थे. चारपाई पर लेटे नूर मियां की आँखों में बीते हुए दिनों के मंज़र थे. आसपास घर बार वाले और रिश्तेदार बैठे हुए थे. किसी से कुछ बोल तो नहीं रहे थे पर चेहरे के उतरते चढ़ते भाव ये बता रहे थे की नूर मियां किसी गहरी सोच में ग़ुम थे. उन्हें प्रोफेसर के हाथों खुद के और मिल्लत के ठगे जाने का अहसास हो रहा था. सोच रहे थे काश उस वक्त ''विद्रोही'' की बात मान ली होती. अकादमिक कौंसिल के फैसले से हम लोगों ने भी इनकार कर दिया होता तो शायद अलीगढ भी ज़िंदा होता और मिल्लत भी. नूर मियां की आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा था. हाथ पैर काँप रहे थे. नूर मियां को दिखा उनके पास सर स्येद खड़े हैं. कितने कमज़ोर कमज़ोर से लग रहे थे. पतले दुबले, मालूम होता था कई दिनों से कुछ खाया नहीं हो और किसी फ़िक्र में ग़ुम हो. पहले से ज़ईफ़ भी हो गए थे. उनके आसपास रॉस मसूद, साहिब ज़ादा आफताब अहमद खान, मोहसिन उल मुल्क, मजाज़, हसरत मोहानी, खड़े थे जिन्होंने सर स्येद के कमज़ोर शरीर को पकडे हुए था. नूर मियां के पथ्थर होते हुए शरीर में थोड़ी जान सी आई. उन्होंने सर स्येद के लिहाज़ में उठना चाहा पर सर स्येद ने मना कर दिया. अलबत्ता सर स्येद खुद भी नूर मियां के बराबर में ही लेट गए और कहने लगे में कही गया नहीं था. यही था तुम लोगों के साथ. सर स्येद की आँख से आंसू बह रहे थे. नूर मियां से अपने ऊपर हुए ज़ुल्म बताने लगे. उन्होंने मिल्लत को लेकर जो ख्वाब देखे थे उन्हें बताने लगे. अचानक सर स्येद को एक झटका लगा और उनका शरीर पथ्थर हो गया. नूर मियां लुटे पिटे से सर स्येद के पथ्थर हुए शरीर को अपने साथ महसूस कर रहे थे. बार बार उनके लफ्ज़ ज़हन को झिंझोड़ रहे थे ''में कही नहीं गया था, यही था तुम लोगो के साथ, लेकिन तुम सब ने मुझे मार दिया, मेरे शरीर को नहीं तुमने मेरी रूह को क़त्ल किया है.''
नूर मियां की आँख से आंसूं का एक कतरा निकला और तेज़ झटका महसूस हुआ. नूर मियां भी इस दुनिया से सर स्येद की रूह के साथ साथ रुखसत हो गए थे. स्येद ने जाते जाते एक बात नूर मियां को और कही ''हम जिस क़ौम से हैं उसने अपने ज़िंदा पीरों की कभी क़द्र नहीं की और मरे हुए के नाम पर सिर्फ मातम किया है''
(फिक्शन: ये कहानी मेरे ज़हन की एक सिर्फ कल्पना है. सच्चाई से इसका कोई लेना देना नहीं है लेकिन ऐसा हो सकता है अगर हमने अकादमिक कौंसिल के फैसले को आज इंकार नहीं किया तो आने वाला कल हो.) 

2 comments:

  1. BOHOT UMDAH LIKA HAI.. MASHALLAHA ALLAH SE DUA HAI KE BEHTAR SEE BEHTAR FAISAL AAE

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  2. accha likha hai, yasir sahab.. koshish kariye ki aligarh ki hi kisi magzine mey chaap jaye....

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