Wednesday 13 May 2015

क़ौम क्या है ; इंसानियत ही क़ौम है



क़ौम ? 


लफ्ज़ ''क़ौम'' जिसके लगवी मायने हैं ''समाज, गिरोह , फ़िरक़ा, जमा'अत वगैरा''..समाज के हर एक तबके ने ''क़ौम'' लफ्ज़ को अलग अलग तरह से समझा है. में ये कहता हूँ के इस लफ्ज़ से समाज में फैलने वाली बुराइयो ने जन्म लिया तो गलत क्या है और मेरे नज़दीक ये सबसे नापसंदीदा लफ्ज़ है. वक़्तन ब वक़्तन समाज में ऐसे दानिशमंद पैदा हुए जिन्हीने अपनी टीचिंग्स से समाज में फैली हुई बुराइओं का तख्ता पलट दिया पर नफ़्से इंसानी ने इन्ही टीचिंग्स को बुनियाद बनाकर फिर से नयी क़ौमे बना ली. और ये सिलसिला चलता रहेगा तब तक, जब तक इस सोहनी धरती से इंसान का वुजूद खत्म नहीं हो जाता.

ये वो लोग हैं जिन्होंने जाती मुफ़ाद की खातिर इंसानियत को टुकड़ो में बाँट दिया और नाम दिया ''क़ौम''. डरी सहमी हुई इस क़ौम ने एक दूसरे पर नंगी तलवारे खीच लीं. खून बहा, क़त्ल हुए, मासूम और नन्हे बच्चे भूक से तड़पते रहे, औरतें बेवा हुई, कुंवारियों की इज़्ज़त को सरे राह बेच दिया जाता रहा, पर दूसरी क़ौम को तरस नहीं आया. लफ्ज़ ''क़ौम'' जिसका मतलब है के हम एक हैं, एक क़ौम हैं, एक ज़ुबान हैं, एक समाज हैं, एक मज़हब हैं, एक बिरादरी हैं, एक कुनबा हैं, एक खानदान हैं,एक निज़ाम हैं, जो हम जैसा नहीं वो हमारी क़ौम नहीं. इस तरह के जज़्बात इंसान के अंदर भर दिए गए और खुदा की खूबसूरत ईजाद यानि इंसान का मज़ाक उड़ाया जाता रहेगा तब तक , जब तक दुनिया वुजूद में है.
मुझसे पूछोगे तो शायद में तारीख के पन्नो में सिमटे हुए महान लोगो के बारे में शायद न बता पाऊ जिन्हे लोग अपना आका समझते हैं पर हाँ, मुझे वो मुझे ज़ुल्म अपनी आँखों के सामने दीखता है जो इन आकाओ ने मासूम और शरीफ लोगो पर किये, मुझे जर्मनी के यहूदियों की चीखें सुनाई देती हैं, यहूदी बच्चो की किलकारियाँ सुनता हूँ और यहूदी औरतो की छातियो से टपकता हुआ दूध दिखाई देता है जिसको ''हिटलर'' नाम के शैतान ने गैस के चैम्बर में बंद करके इंसानियत का गाला घोंट दिया. इस लफ्ज़ क़ौम ने न जाने कितने घर उजाड़ दिए. मुझे कश्मीरी बेटियो की चीखे सुनाई देती हैं जिनके साथ कई बरसों से अस्मत रेज़ी होती रही. फिलिस्तीन की माओ और उनके लखते जिगर की चीज़ो से आजिज़ आ चूका हूँ , मुझे दलित की बेटियो की चीखे सुनाई देती हैं जिनसे दो वक्त की रोटियों की खातिर ''बाबू साहब'' अपना बिस्तर गरम करवाते हैं, भूक और पापी पेट की खातिर ये क़ौम हज़ारो सालो से बाबू साहब के घर के पाखाने साफ़ करती रहेंगी और हम इस अछूत क़ौम को भीक में रोटी के दो टुकड़े देते रहेंगे. तिब्बत में हो रहे ज़ुल्मो को भी याद करो. अमरीका जैसे मुल्क ने इराक और सऊदी में अपने पंजे गाड़ दिए. फ्रांस के अर्जेंटीना पे किये हुए ज़ुल्म को याद करो, नेहरू और जिन्ना की ज़िद से लाखो इंसानो का क़त्ल ए आम हुआ.



मेरी क़ौम क्या है

मुझे इस लफ्ज़ क़ौम से नफरत भी हो गयी है. ये कैसे मुमकिन है के मेरी पैदाइश ये तय करे की में किस क़ौम से हूँ, में न हिन्दू हूँ,न ईसाई हूँ, न मुस्लमान हूँ, में न काफ़िर हूँ, न ब्राह्मण हूँ, न तुर्क हूँ, न पठान हूँ. अब में तेरे मेरे के चक्कर से आज़ाद हो चूका हूँ, अब में दूसरी दुनिया की तलाश में निकल चूका हूँ जहाँ अपनी क़ौम का परचम लेहराऊंगा. मेरी क़ौम का नाम ''इंसानियत'' होगा. मेरी इस क़ौम में न कोई मज़हब होगा, न ज़ात पात, न कोई छोटा बड़ा ही होगा, औरत और मर्द के हुकूक में भी कोई फर्क नहीं. में लोगो को समझा तो नहीं सकता पर मेरी क़लम चलती रहेगी और समाज के उन रंगे हुए गीदड़ो को बेनकाब करती रहेगी जिन्होंने मेरी क़ौम इंसानियत को लहूलुहान कर दिया है 



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