Wednesday 20 May 2015

''महल वालों'' की सियासत: लक़ब के फरेब

              
 
 

यकीनन इस मज़्मून का पसमंजर मादर ए वतन है. मादर ए वतन यानी के वो ज़मीन जहाँ हम पैदा हुए,जिसकी सोहनी धरती पर हम खेल कूद कर बड़े हुए, जिसने हमें एक नाम दिया, एक पहचान दी,एक ज़ुबान दी,एक मज़हब दिया, रिश्ते दिए, मोहब्बत दी, और इन सब से ज़्यादा हमें एक लक़ब दिया ''महल वाले''. मै आज इन लक़ब से होने वाली सियासत का पर्दाफाश  करना चाहूंगा।
               शहरों की दुनिया में लोगो के घरो और नस्लों की पहचान मकान नंबर और स्ट्रीट नंबर  से होती है वही गावों  की दुनिया  में नस्लों और घरों  की पहचान लोगों  के लक़ब से होती है. में अक्सर तन्हाइयो में सोचता हूँ  जिन लक़ब से हम जाने जातें  हैं वो लक़ब कब, कैसे , कहाँ, और किसने दिए होंगे। क्योकि में जब भी इस मोज़ू पर सोचता हूँ मुझे इन लक़ब के चलन में एक झूट और फरेब  की सियासत दिखती है। 
              ऐसा कैसे मुमकिन है की किसी का लक़ब बहुत इज़्ज़तदार लफ्ज़ो के साथ लिया जाये और किसी के इतने ज़लील लफ्ज़ो के साथ लिया जाये के लेने वाले को भी शर्म महसूस हो, मसलन किसी को कहें ''महल वाले'' और उसी के पड़ोस में रहने वाले गरीब इंसान को ''सूअर वाले'' . मेने अपनी 26 साल की ज़िन्दगी में इस सियासत को बहुत करीब से समझने की कोशिश की है।  
              आखिर में, में इस नतीजे पे पहुंचा हूँ के इन ''महलों '' में रहने वाले ''शेह्ज़ादो'' ने समाज में अपनी झूटी शान क़ायम रखने के लिए ऐसी ऐसी पालिसी ईजाद की जिससे वो समाज को अपनी आने वाली नस्लों तक के लिए ''दिमागी ग़ुलाम'' बना कर रख सकें।  भूख़ और अपने पापी पेट की खातिर ग़रीब और दबा कुचला समाज इन ''महल वालो '' के ज़ुल्म सेहता  रहा और यही ''महल वाले'' इन ग़रीबो के अहसास और जज़्बात पे कहकहे लगाते रहे।  सारी  ज़िन्दगी पसमांदा समाज इन ''महलों'' के शेह्ज़ादों के घोड़ों की लीध्धियां साफ़ करता रहा और ग़रीबो की बहु बेटियां इनके इशरत कदमो में पहुँचती रहीं।  
                ''महल वालों'' की ख़ास खोजो में सबसे एहम खोज थी ''लक़ब'' को ईजाद करना।  लक़ब होना कोई बुरी बात नहीं थी पर जान बूझकर  इस तरह के लक़ब देना जिससे उसकी नस्लें  तमाम उम्र एहसासे  कमतरी का शिकार रहें  और अगर इनकी नस्लें आगे बढ़ भी जायें  तो  हम तब भी इन्हे इनके पुरखों के नाम से ज़लील करते रहें। ये एक अजीब बात ही होगी कि  हम किसी की नस्लों को सारी  ज़िन्दगी ''कुत्ते के , सूअर के, चमारी के , कुबड़े के, लंगड़े के, अंधे के, बेहरे के, गूंगे के, चूहे के, चोर के, कंजर के, भंगी के, गीदड़ के, गधे के'' जैसे बुरे लफ्ज़ो से पहचान करें।  इन सब में मुझे एक ही बात ख़ास लगी के समाज के ''अमीर तबकों'' के लक़ब बहुत इज़्ज़त वाले लफ्ज़ो में थे जैसे के ''महल वाले, हवेली वाले, सेठ वाले''. 
               में लिखता हूँ के ये सनद रहे और समाज के उस अनपढ़ तबके को इस बात का इल्म हो जाये के इन ''महल वालों''  ने अपने फरेबी दिमाग के फितूर से किस तरह उन्हें सियासत का शिकार किया।  तमाम उम्र ये ''महल वाले'' इस बात की डींगे मारते रहेंगे की उनके उनके पुरखे ''महल वाले'' थे।  इनकी और आम लोगो की कोई बराबरी नहीं।ये आज भी उसी शान और शौकत की दलील देते रहेंगे और दूसरे लोगो को उनके लक़ब से ज़लील करते रहेंगे।  इसी तू तू में में के चक्कर में ''महल वालो'' को इस बात का अहसास भी नहीं हुआ की कब सियासत इनके हाथ से छिन गयी, कब ये अनपढ़ क़ौम पढ़ने लिखने लगी और ''महल वालो'' की सियासत को समझने लगी।  अब ये क़ौम ताक़यामत इन  ''महल वालो'' से नफरत करती रहेगी और अपनी नस्लों को इनके ज़ुल्मो सितम पे कसीदे सुनती रहेगी।  ये ''महल वाले'' अपनी बर्बादी को अपनी आँखों से देखेंगे और इनकी औलादें इनसे अपनी फूटी हुई क़िस्मत का गिला करेगी,  आखिर को यही नस्लें आम लोगो की नफरते झेलने वाली हैं।  
              काश के इन ''महल वालो'' ने ग़रीब के कपड़े और रोटी छीनने के बजाय, दो वक़्त का खाना दे दिया होता, काश के इन ''महल वालो'' ने ग़रीब की बेटियों और बहुओं की इज़्ज़त को नीलाम करने के बजाय उनके तन पर कपड़ा ढक दिया होता, काश के इन ''महल वालो'' ने ग़रीब लोगो को बुरे लक़ब न दिए होते, काश के इन ''महल वालो'' ने अपने ''दीवानखानो और बैठको'' में ग़रीब के आंसू पर कहकहे ना लगाये होते, काश के इन ''महल वालो'' ने ग़रीब से किताब और क़लम छीनने के बजाये उनके हाथ में क़लम थमा दी होती , काश के इन ''महल वालो'' ने ग़रीब की ''पाक ज़मीनो'' पर अपनी ''नापाक नज़रे'' न गड़ाई होती तो आज में इन ''महल वालो'' के फरेबों को बयान ना कर रहा होता।  
               में लिखता हूँ के ये ताक़यामत सनद रहे, के अपने झूट, फरेब, कपट, और लालच से इन ''महल वालों'' ने ग़रीबो को अपने ज़ुल्म का शिकार किया, ताकि आने वाली नस्ले इनके ज़ुल्म के बदले में इन्हे समाज से बेदखल कर दे।  में लिखता हूँ के नयी नस्लों को जीने का मकसद मिल सके, में लिखता हूँ के पुरानी और सड़ी हुई रिवायतों को तोड़ा  जा सके, में लिखता हूँ नयी नस्लें नए ख्वाब देख सकें, नयी पहचान बना सकें, नयी ज़िन्दगी जी सकें, दिमागी ग़ुलामी की बेड़ियों से आज़ाद हो सकें।  में लिखता हूँ के ज़माने की सोच को बदल सकें, पुराने ख्यालों की बेड़ियों को तोड़ सकें।  
ऐ मेरी क़ौम के गैरतमंद लोगो ! वक्त आ चूका है उठने का, कब तक हम किसी की मौत का मातम मानते रहेंगे। उठो ! वक्त आ चूका है उस कट्टर समाज से बगावत करने का जिसने तुमसे और तुम्हारी नस्लों से उनकी ज़िन्दगियों से उनके हक़ छीने हैं।  
              बहुत मुमकिन है के मेरे अपने लोगो को मुझसे इस बात का गिला हो के किस तरह में खुद अपने पुरखों की इज़्ज़त यूँ खुलेआम अपनी हे क़लम से लुटाता रहूँगा और मेरे अपने लोग सुम्मुम, बुकमुन और खामोश तमाशाई बने रहेंगे, आखिर को में खुद भी उन्ही फरेबी ''महल वालों'' में से ही हूँ।  ऐ मेरे लोगो तुम्हे बता दूँ मेरा इल्म मुझे अब फरेबों को खोलने के लिए मजबूर करता है।  ये बात एक शहर की नहीं, एक बहुत बड़े समाज की है।  आज भी न जाने कितने ''महल वाले'' छोटे छोटे कस्बों और गावों में ग़रीब और दबे कुचले लोगों  को अपने ज़ुल्म की चक्की में पीसते हैं।   
                ऐ मेरी क़ौम के दानिशमंद लोगो! आओ हमारा साथ दो, आओ हम लोग मिलकर इस समाज को नयी शक्ल दें।  आओ ! के कांटो को चुन लें और फूलों को खिलाकर दुनिया को हसीन रंग देने की कोशिश करें।  आओ के अब हम खुदगर्ज़ी छोड़कर अगली नस्लों के लिए एक बेहतरीन दुनिया बनायें।  आओ के इन रंगे हुए गीदड़ो को बेनक़ाब करें।  
               मेरा सफर चलता रहेगा और में समाज के इन रंगे हुए गीदड़ो को बेनक़ाब करता रहूँगा। बहुत मुमकिन है के किसी तलवार का इन गीदड़ो पर कोई असर न हुआ हो पर मेरी ''क़लम की धार'' इनके फरेबों को चीर  फाड़  के निकलेगी।  और आखिर में इतना ही कहना चाहूंगा -
मेरे ख्वाबो को छीना है किसी ने,
में अपनी बेहिसी पे मुस्तहिक़ हूँ,
मेरे लहजे में सच का बाँकपन है,
में ''शेरकोट'' की ज़िंदा नस्ल हूँ,
''इंक़िलाब ज़िंदाबाद''


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